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Dehradun Cloud Burst क्या है?
उत्तराखंड की राजधानी Dehradun, जिसे लोग अक़्सर “देवभूमि का दरवाज़ा” भी कहते हैं, हमेशा से अपनी हसीन वादियों, पहाड़ों की ख़ामोशी और हरियाली की रौनक़ के लिए मशहूर रही है। लेकिन हाल ही में यहाँ हुआ Cloud Burst यानी बादल फटना ऐसी दर्दनाक आफ़त बनकर टूटा कि न सिर्फ़ पूरा प्रदेश बल्कि पूरे मुल्क के लिए यह फिक्र का सबब बन गया।

ये हादसा हमें फिर से एहसास कराता है कि पहाड़ों की नाज़ुक ज़मीन और बदलते मौसम की मार किस तरह इंसानी ज़िंदगी पर भारी पड़ सकती है।
अब बात करें क्लाउडबर्स्ट की, तो आसान अल्फ़ाज़ में इसका मतलब है – बहुत कम वक़्त में हद से ज़्यादा बारिश हो जाना। साइंस के जानकार कहते हैं कि अगर किसी जगह पर अचानक एक घंटे के अंदर 100 मिलीमीटर से ज़्यादा बारिश हो जाए, तो उसे क्लाउडबर्स्ट कहा जाता है।
पहाड़ी इलाक़ों में ये हालात और भी ख़तरनाक हो जाते हैं, क्योंकि वहाँ पानी के निकलने का रास्ता बहुत तंग होता है। ऐसे में बारिश का पानी तेज़ी से नीचे उतरता है और अपने साथ सब कुछ बहा ले जाता है – घर, ज़मीन, खेत, यहाँ तक कि इंसानी ज़िंदगियाँ भी|
Dehradun में Cloud Burst हालिया घटना
Dehradun में जो क्लाउडबर्स्ट हुआ, उसने कई इलाक़ों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया, सब कुछ तहस-नहस हो गया। नदियों और नालों में अचानक पानी का ऐसा सैलाब आया कि उसका बहाव कई गुना बढ़ गया। पानी की तेज़ रफ़्तार ने गाँवों के घरों को बहा डाला, खेतों में मेहनत से उगाई गई फसलें पलभर में मिट्टी में मिल गईं और कई जगहों पर सड़कों का आपसी रिश्ता ही टूट गया, यानी रास्ते बंद हो गए।
सबसे बड़ा नुकसान इंसानी ज़िंदगियों का हुआ। कई लोगों ने अपनी जानें गंवा दीं, कुछ लोग अब भी ग़ायब हैं और उनका कोई सुराग़ नहीं मिल रहा, जबकि सैकड़ों ख़ानदान बेघर होकर बे-सहारों की तरह खुले आसमान तले रहने को मजबूर हो गए।
इस सख़्त हालात में, स्थानीय प्रशासन और एनडीआरएफ (National Disaster Response Force) की टीमें फ़ौरन हरकत में आईं और राहत व बचाव का काम शुरू कर दिया। मगर पहाड़ी रास्तों की दुश्वारी और लगातार जारी बारिश ने उनके लिए भी हालात बेहद पेचीदा बना दिए। पहाड़ों में जहाँ पहुँचना ही मुश्किल होता है, वहाँ मूसलाधार बारिश ने रेस्क्यू ऑपरेशन को और भी भारी और ख़तरनाक बना दिया।
Dehradun में Cloud Burst के कारण
वैज्ञानिकों और माहिर पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की आफ़त यूँ ही नहीं आती, इसके पीछे कई बड़ी वजहें छुपी होती हैं।
जलवायु परिवर्तन (Climate Change):
ग्लोबल वार्मिंग ने पूरे मौसम का मिज़ाज ही बदल कर रख दिया है। अब हवा में नमी की मात्रा पहले से कहीं ज़्यादा रहने लगी है। जब ये गर्म और भारी नमी अचानक ठंडी हवाओं से टकराती है, तो देखते ही देखते मूसलाधार बारिश में बदल जाती है और फिर बादल फटने जैसी स्थिति पैदा हो जाती है।
वनों की कटाई (Deforestation):
देहरादून और उसके आसपास शहरीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है। जंगलों को काटकर मकान, दुकान और कॉलोनियाँ बनाई जा रही हैं। इससे जो प्राकृतिक नालियाँ और पानी सोखने की ज़मीन हुआ करती थीं, वो सब बिगड़ चुकी हैं। नतीजा ये कि पानी को सही रास्ता नहीं मिलता और वो बेकाबू होकर बाढ़ का रूप ले लेता है।
कंक्रीट का जंगल (Concrete Jungle):
जहाँ कभी घने जंगल और हरे-भरे खेत होते थे, वहाँ आज होटल, बड़ी-बड़ी इमारतें और सड़कों का जाल बिछा दिया गया है। मिट्टी जो कभी बारिश का पानी सोख लेती थी, उसकी जगह अब पत्थर और सीमेंट ने ले ली है। ऐसे में अचानक होने वाली बारिश ज़मीन में समाती नहीं, बल्कि सैलाब बनकर तबाही मचाती है।
भूगोल की नाज़ुकता (Geographical Sensitivity):
हिमालयी इलाक़ा वैसे ही ज़मीन के लिहाज़ से बहुत नाज़ुक और कमज़ोर है। यहाँ की ढलानें और मिट्टी भारी बारिश को झेल नहीं पातीं। पानी के दबाव से मिट्टी खिसक जाती है और अक्सर भूस्खलन (landslide) और बाढ़ जैसी मुसीबतें सामने आ जाती हैं।
देहरादून और आसपास का असर
इस क्लाउडबर्स्ट ने सिर्फ़ लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को ही नहीं बिगाड़ा, बल्कि पूरे उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था और ख़ास तौर पर टूरिज़्म इंडस्ट्री पर गहरा असर डाला है।
पर्यटन पर असर:
देहरादून और मसूरी वो जगहें हैं जहाँ हर साल लाखों सैलानी सैर-सपाटा करने आते हैं। इन पहाड़ियों की ख़ूबसूरती, मौसम की ठंडक और वादियों की रौनक़ ही लोगों को खींचकर यहाँ लाती है। लेकिन जब से क्लाउडबर्स्ट की ये ख़बर फैली, सैलानियों में डर बैठ गया। कई होटल बुकिंग्स कैंसिल हो गईं और जिन लोगों ने आने का इरादा बनाया था, उन्होंने भी अपना सफ़र टाल दिया। इससे स्थानीय कारोबारियों, होटलों और टैक्सी वालों की रोज़ी-रोटी पर सीधा असर पड़ा।
कृषि पर असर:
गाँवों के किसान जिनकी ज़िंदगी उनकी फ़सल पर टिकी होती है, उनका हाल सबसे ज़्यादा ख़राब हुआ। मेहनत से बोई और पाली गई फ़सलें बारिश और सैलाब में बह गईं। अब उनके सामने रोज़गार और आजीविका का बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया है। जिन खेतों में कभी अनाज की लहलहाती बालियाँ होती थीं, वहाँ अब सिर्फ़ कीचड़ और बर्बादी बची है।
सड़क और पुलों का टूटना:
क्लाउडबर्स्ट की वजह से कई जगहों पर सड़कें कट गईं और पुल टूट गए। नतीजा ये हुआ कि परिवहन व्यवस्था बिल्कुल ठप हो गई। कई गाँव तो अब भी बाहरी दुनिया से कटे हुए हैं, जैसे मानो वो अलग-थलग हो गए हों।
इंसानी त्रासदी:
लेकिन सबसे ज़्यादा दिल को चीर देने वाला मंजर उन ख़ानदानों का है जिन्होंने अपने अपने अपनों को खो दिया। किसी की आँखों के सामने उसका घर ढह गया, किसी की ज़मीन और मेहनत का सहारा सैलाब में बह गया। बहुत से परिवारों ने तो अपनी पूरी ज़िंदगी की कमाई और आसरा गँवा दिया।
जो लोग अब राहत शिविरों में रह रहे हैं, उनकी परेशानियाँ भी कम नहीं। वहाँ पीने के पानी की कमी है, खाने-पीने का इंतज़ाम बहुत सीमित है, दवाइयाँ मुश्किल से मिल रही हैं और सिर पर छत की कमी ने उनकी ज़िंदगी और भी मुश्किल बना दी है।
प्रशासन और सरकार की भूमिका
उत्तराखंड हुकूमत ने इस आफ़त के बाद फ़ौरन आपदा राहत कोष जारी किया और जिन परिवारों पर सबसे ज़्यादा सितम टूटा, उन्हें मुआवज़ा देने का ऐलान किया। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों ने हालात पर गहरी चिंता जताई और हुक्म दिया कि राहत और बचाव का काम तेज़ी से किया जाए।
हेलिकॉप्टरों के ज़रिये खाने-पीने का सामान, दवाइयाँ और ज़रूरी राहत सामग्री पहाड़ी इलाक़ों तक पहुँचाई गई। सेना को भी मैदान में उतारा गया ताकि मुश्किल जगहों तक मदद पहुँच सके और फँसे हुए लोगों को सुरक्षित निकाला जा सके।
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या हर बार हम सिर्फ़ तब हरकत में आएँगे जब आफ़त आकर हमारी ज़िंदगियों को उजाड़ देगी? क्या सिर्फ़ बाद में मुआवज़ा बाँटना और राहत सामग्री पहुँचाना ही काफ़ी है? या हमें पहले से तैयारी करनी चाहिए, ऐसी उपाय करनी चाहिए जिससे आने वाली मुसीबतों का बोझ कुछ हल्का किया जा सके।
Dehradun में क्या है समाधान?
क्लाउडबर्स्ट जैसी कुदरती आफ़तों को पूरी तरह से रोक पाना इंसान के बस में नहीं है, लेकिन इनके नुक़सान और असर को ज़रूर कम किया जा सकता है। इसके लिए कुछ एहतियाती कदम पहले से उठाने होंगे।
पहले से चेतावनी प्रणाली (Early Warning System):
आज के ज़माने में साइंस और टेक्नोलॉजी इतनी तरक़्क़ी कर चुकी है कि मौसम का हाल पहले से काफ़ी हद तक बताया जा सकता है। अगर सटीक भविष्यवाणी हर गाँव और कस्बे तक पहुँचा दी जाए, तो लोग पहले से तैयार रहेंगे और जान-माल का नुक़सान कम होगा।
सतत विकास (Sustainable Development):
बे-लगाम और बेतरतीब निर्माण पर रोक लगानी होगी। जहाँ-तहाँ इमारतें, होटल और सड़कें बनाने की बजाय, प्राकृतिक जल-निकासी और नदियों-नालों का असली रास्ता बचाना होगा। तभी पानी बेकाबू होकर तबाही नहीं मचाएगा।
वृक्षारोपण और जंगलों की हिफ़ाज़त:
जंगलों की अंधाधुंध कटाई पर सख़्त रोक लगानी ज़रूरी है। साथ ही बड़े पैमाने पर पेड़ लगाए जाएँ, ताकि पहाड़ मज़बूत रहें और बारिश का पानी मिट्टी सोख ले। पेड़ ही वो सहारा हैं जो मिट्टी को थामे रखते हैं और ज़मीन को ज़िंदा रखते हैं।
आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग:
गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे के लोगों को आपदा प्रबंधन की बेसिक ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। जब मुसीबत अचानक आ जाए, तो लोग घबराने के बजाय तुरंत सही क़दम उठाएँ और एक-दूसरे की मदद कर सकें।
देहरादून का ये क्लाउडबर्स्ट महज़ एक हादसा नहीं, बल्कि एक सख़्त चेतावनी है। ये हमें बताता है कि अगर हमने वक्त रहते पर्यावरण के साथ संतुलन बनाना नहीं सीखा, तो आने वाले सालों में ऐसी आफ़तें और ज़्यादा बढ़ेंगी।
हमें ये समझना होगा कि तरक़्क़ी की अंधी दौड़ में अगर हमने प्रकृति को नज़रअंदाज़ किया, तो आख़िरकार इसका नुक़सान हमें ही भुगतना पड़ेगा। हमारी ज़िंदगी, हमारी रोज़ी-रोटी, हमारी सलामती – सब कुछ इसी कुदरत पर टिका है।
देहरादून क्लाउडबर्स्ट ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है कि चाहे इंसान कितनी भी ऊँचाइयाँ छू ले, लेकिन प्रकृति के सामने उसकी हैसियत हमेशा छोटी ही रहेगी। और सबसे अहम बात – जलवायु परिवर्तन अब कोई आने वाला ख़तरा नहीं, बल्कि आज की हक़ीक़त है।
अगर हुकूमत, समाज और आम लोग मिलकर जागरूक हों और ठोस क़दम उठाएँ, तो न सिर्फ़ देहरादून बल्कि पूरे हिमालयी इलाक़े को सुरक्षित बनाया जा सकता है। वरना, ऐसी त्रासदियाँ बार-बार हमारे दरवाज़े पर दस्तक देती रहेंगी और हम बेबस होकर सिर्फ़ आँसू बहाने पर मजबूर रहेंगे।
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