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Zoho संस्थापक Shridhar Vembu का साफ संदेश, Privacy बनाम Power डिजिटल दुनिया में बढ़ता Struggle

Zoho संस्थापक Shridhar Vembu का साफ संदेश, Privacy बनाम Power डिजिटल दुनिया में बढ़ता Struggle

परिचय: Shridhar Vembu कौन हैं?

Shridhar Vembu भारत के उन बहुत ही खास और प्रेरणादायक लोगों में से हैं जिन्होंने विदेश में सफलता पाने के बाद अपने देश लौटकर यहाँ कुछ बड़ा करने का फैसला किया। वो न सिर्फ़ एक सफल बिज़नेस लीडर हैं बल्कि एक ऐसे इंसान भी हैं जो ग्रामीण भारत और तकनीकी आत्मनिर्भरता दोनों को साथ लेकर चलना चाहते हैं।

Shridhar Vembu का जीवन बहुत सादा और ज़मीन से जुड़ा हुआ है। वे अकसर गाँवों में रहते हैं, लोगों से खुलकर बातें करते हैं, स्थानीय स्कूलों और शिक्षकों को सहयोग देते हैं, और गाँवों में टेक्नोलॉजी सिखाने के लिए छोटे-छोटे केंद्र (rural tech centers) खोलते हैं। उनका मानना है कि भारत की असली ताक़त गाँवों में छिपी है, और अगर वहीं से तकनीकी क्रांति शुरू की जाए, तो देश को आत्मनिर्भर बनाना मुश्किल नहीं।

Shridhar Vembu साफ़ तौर पर ये कहते हैं कि भारत को अब “टेक्नोलॉजी संप्रभुता” यानी tech sovereignty की दिशा में बढ़ना चाहिए। उनका मतलब ये है कि जब Google, Apple या कोई भी विदेशी कंपनी भारत में काम करती है, तो उसे भारत के कानूनों, नियमों और डेटा सुरक्षा नीतियों का पूरा पालन करना चाहिए। वो मानते हैं कि देश की तकनीकी आज़ादी और डेटा नियंत्रण सबसे ज़रूरी चीज़ है ताकि भारत सिर्फ़ टेक्नोलॉजी का उपभोक्ता न रहे, बल्कि उसका निर्माता भी बने।

Shridhar Vembu का कहना है कि अगर हम अपने सॉफ़्टवेयर, अपने सर्वर और अपनी डेटा नीतियों पर नियंत्रण रखेंगे, तो हमें किसी दूसरे देश पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। यही असली आत्मनिर्भर भारत का रास्ता है जहाँ टेक्नोलॉजी भी “Made in India” हो और उसके फैसले भी भारत में ही लिए जाएँ।

जो टिप्पणी Shridhar Vembu ने दी उसका सार

हाल ही में Shridhar Vembu ने अपने X (ट्विटर) अकाउंट पर एक बेहद दिलचस्प और सोचने पर मजबूर कर देने वाली पोस्ट लिखी। उन्होंने उसमें गोपनीयता (privacy) से जुड़ी तीन अलग-अलग स्थितियों के बारे में बात की

Secret lover (गुप्त प्रेमी)

Misuse of data for targeted ads (डेटा का गलत इस्तेमाल करके लोगों को निशाना बनाना)

Secret rebel (गुप्त विरोधी या सरकार के खिलाफ काम करने वाला व्यक्ति)

उन्होंने इन तीन उदाहरणों के ज़रिए ये समझाने की कोशिश की कि आज की डिजिटल दुनिया में “गोपनीयता” (privacy) कोई आसान या पूर्ण अधिकार नहीं रह गया है। उन्होंने साफ़ कहा “चाहे Google हो या Apple, जब वे भारत में काम करते हैं, तो उन्हें भारतीय कानूनों का पालन करना ही पड़ेगा… और उसी तरह, जब Zoho अमेरिका में काम करता है, तो उसे अमेरिकी कानून मानने होंगे।”

यानि कि बात सीधी है किसी भी कंपनी को, चाहे वो दुनिया की सबसे बड़ी टेक कंपनी क्यों न हो, उस देश के कानूनों और नियमों के हिसाब से चलना ही पड़ेगा, जहाँ वो काम कर रही है।

Shridhar Vembu ने ये भी कहा कि कंपनियों को लोगों से ये झूठा वादा नहीं करना चाहिए कि वे हर हालत में उनकी गोपनीयता की रक्षा कर सकती हैं, खासकर तब जब बात सरकारी जाँच या राष्ट्रीय सुरक्षा की हो। उनके शब्दों में “Sovereign power always prevails over mere companies.” यानि कि राज्य की संप्रभु शक्ति (sovereign power) हमेशा कंपनियों से ऊपर होती है।

दूसरे शब्दों में, कोई भी कंपनी सरकार या कानून से बड़ी नहीं हो सकती। अगर किसी देश की सरकार किसी जांच या सुरक्षा कारण से डेटा मांगती है, तो कंपनियों को उसे देना ही होगा। वो यह नहीं कह सकतीं कि “हम नहीं देंगे, क्योंकि यूज़र की privacy ज़्यादा ज़रूरी है।”

Shridhar Vembu का ये नजरिया बहुत व्यावहारिक (practical) और यथार्थवादी (realistic) है। वो ये समझते हैं कि दुनिया सिर्फ़ “privacy vs freedom” की लड़ाई में नहीं बंटी हुई है इसमें कानून, सुरक्षा, और नागरिक जिम्मेदारी भी उतनी ही अहम हैं।

उन्होंने “secret rebel” का उदाहरण देकर ये समझाने की कोशिश की कि अगर कोई व्यक्ति सरकार विरोधी गतिविधियों में शामिल है या देश की सुरक्षा को नुकसान पहुँचा रहा है, तो कोई भी कंपनी यह नहीं कह सकती कि “हम उसकी गोपनीयता की रक्षा करेंगे।” क्योंकि ऐसा करना सीधे-सीधे कानून का उल्लंघन होगा।

Shridhar Vembu का कहना है कि कंपनियों की आज़ादी (freedom of expression या technology autonomy) की भी एक सीमा होती है। जब ये आज़ादी किसी देश की न्याय प्रणाली, संविधान या सरकारी अधिकारों (governmental prerogatives) से टकराती है, तो अंत में कानून की जीत होती है, न कि कंपनियों की।

उनका ये दृष्टिकोण बहुत संतुलित है वो न तो पूरी तरह “सरकारी पक्ष” में हैं, न पूरी तरह “कॉर्पोरेट स्वतंत्रता” के। बल्कि वो एक मध्य रास्ता सुझा रहे हैं जहाँ टेक्नोलॉजी, कानून और नागरिक हितों के बीच सही तालमेल बनाया जा सके।

देशीय कानून बनाम वैश्विक प्लेटफ़ॉर्म

गूगल, एप्पल जैसी बड़ी टेक कंपनियाँ सालों से पूरी दुनिया में काम कर रही हैं। उनके पास अपने-अपने देशों में मजबूत सिस्टम, नीतियाँ और नेटवर्क हैं। लेकिन जब बात भारत जैसे बड़े और जटिल देश की आती है, तो यहाँ मामला थोड़ा अलग हो जाता है। यहाँ सिर्फ़ बिज़नेस करना ही नहीं, बल्कि कानूनी, सामाजिक और राजनीतिक ज़िम्मेदारियाँ भी साथ चलती हैं।

Shridhar Vembu का कहना है कि अगर ये ग्लोबल कंपनियाँ भारत में काम करना चाहती हैं, तो उन्हें भारत के कानूनों और नियमों का सम्मान करना ही पड़ेगा। इसका मतलब है कि डेटा प्रोटेक्शन, अभिव्यक्ति की सीमाएँ (freedom of expression limits), और कानून प्रवर्तन एजेंसियों (law enforcement authorities) के आदेश इन सबका पालन करना जरूरी है। कोई भी कंपनी, चाहे वो कितनी ही बड़ी क्यों न हो, भारतीय संविधान से ऊपर नहीं हो सकती।

Shridhar Vembu का ये तर्क बहुत साफ़ है — “जब कोई कंपनी भारत में काम करती है, तो उसे भारत के कानूनों के हिसाब से ही चलना होगा।”
और जब वही कंपनी किसी दूसरे देश में जाती है, जैसे कि अमेरिका या यूरोप, तो वहाँ के नियमों और नीतियों का पालन करना उसका फ़र्ज़ है।

वो ये भी कहते हैं कि उनकी अपनी कंपनी Zoho भी इस नियम से अलग नहीं है। वो खुद चाहते हैं कि Zoho को कोई “विशेषाधिकार” (special privilege) न मिले। अगर भारत में कोई जांच एजेंसी या सरकारी संस्था किसी जानकारी की मांग करे, तो वे उसे कानून के तहत देंगे — क्योंकि पारदर्शिता (transparency) और ईमानदारी (integrity) किसी भी कंपनी की असली पहचान होती है।

Shridhar Vembu का मानना है कि यही “नीति समानता (policy symmetry)” होनी चाहिए जहाँ हर देश में काम करने वाली कंपनी वहाँ के कानूनों का सम्मान करे।

गोपनीयता, सरकार और कंपनियों का संतुलन

Shridhar Vembu ने जब अपनी पोस्ट में “secret lover, targeted ads, और secret rebel” की बात की, तो दरअसल वो यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि गोपनीयता (privacy) कोई एक सीधी-सादी चीज़ नहीं है, बल्कि इसके कई अलग-अलग स्तर (layers) और सीमाएँ (boundaries) होती हैं।

उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति की प्राइवेसी की जरूरत और उसका अर्थ अलग हो सकता है Secret lover का मतलब है किसी के निजी रिश्तों या निजी जीवन की गोपनीयता। यह वो प्राइवेसी है जिसकी उम्मीद ज़्यादातर लोग करते हैं कि उनकी व्यक्तिगत बातें या रिश्ते सबके सामने न आएँ।

Targeted data misuse यानी कंपनियों द्वारा लोगों का डेटा इस्तेमाल करके उन्हें विज्ञापनों या मुनाफ़े के लिए निशाना बनाना। यह आज की डिजिटल दुनिया की एक बड़ी सच्चाई है जहाँ हमारी पसंद, हमारी बातें, यहाँ तक कि हमारी ऑनलाइन हरकतें भी बिज़नेस का हिस्सा बन चुकी हैं।

और तीसरा, Secret rebel — यानी ऐसे लोग जो किसी सरकार या सत्ता के विरोध में काम कर रहे हों। वेंबु का कहना है कि इनकी “गोपनीयता” उतनी पवित्र नहीं मानी जा सकती, क्योंकि जब मामला राष्ट्रीय सुरक्षा या कानून व्यवस्था का हो, तो सरकारों के पास उन्हें ट्रैक करने और जांचने का अधिकार होता है।

Shridhar Vembu ने बहुत साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि कोई भी कंपनी यह दावा नहीं कर सकती कि वो “secret rebels” को पूरी तरह सुरक्षा दे सकती है क्योंकि हर देश की सरकार के पास अपनी संप्रभु शक्ति (sovereign power) होती है, जो कंपनियों से कहीं ऊपर है।

आलोचनाएँ और चुनौतियाँ

Shridhar Vembu का यह तर्क कई लोगों को थोड़ा “रक्षा का बहाना” (defensive excuse) भी लग सकता है। कुछ आलोचकों का मानना है कि सरकारें या बड़ी शक्तियाँ अक्सर “कानून के पालन” के नाम पर आवाज़ों को दबाने की कोशिश करती हैं यानी जो लोग सरकार की नीतियों या फैसलों की आलोचना करते हैं, उन्हें सुरक्षा या जांच के बहाने निशाना बनाया जा सकता है।

असल में, दुनिया के कई देशों में सरकारें अब ऐसी कानूनी शक्तियाँ (legal powers) चाहती हैं, जिनसे वे लोगों के निजी संदेशों, चैट्स और गोपनीय संवादों तक भी पहुँच बना सकें। उनका तर्क होता है कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा या अपराध नियंत्रण के लिए ज़रूरी है। लेकिन जब ऐसा होता है, तो कंपनियों की स्वतंत्रता (freedom) सीमित होने लगती है क्योंकि उन्हें सरकार के आदेशों का पालन करना पड़ता है, चाहे वो आदेश सही हों या विवादित।

अब सवाल यह उठता है कि अगर कानून खुद ही विवादास्पद हो, तो क्या कंपनियों को फिर भी उसका पालन करना चाहिए? उदाहरण के तौर पर, कुछ देशों में ऐसे कानून बनाए गए हैं जिनके तहत सरकारें किसी भी प्लेटफ़ॉर्म से डेटा माँग सकती हैं और अगर प्लेटफ़ॉर्म मना करे, तो उस पर कार्रवाई हो सकती है।

कई बार उच्च न्यायालय (High Court) या सुप्रीम कोर्ट को बीच में आकर रोक लगानी पड़ती है, क्योंकि ऐसे कानून निजता (privacy) और अभिव्यक्ति की आज़ादी (freedom of speech) पर असर डाल सकते हैं।

यही वजह है कि कंपनियाँ एक अजीब से संघर्ष (conflict) में फँस जाती हैं एक तरफ़ उन्हें सरकार के आदेशों का पालन करना होता है, दूसरी तरफ़ उन्हें अपने यूज़र्स के भरोसे और अधिकारों की रक्षा करनी होती है।

सरकार और टेक कंपनियों के बीच ताक़त का यह असंतुलन (regulatory imbalance) आगे भी बना रह सकता है। क्योंकि सरकार के पास हमेशा ज़्यादा ताक़त, संसाधन और कानूनी अधिकार होते हैं, जबकि कंपनियाँ अक्सर उसी ढांचे के अंदर काम करने को मजबूर होती हैं।

नतीजा यह होता है कि कई बार कंपनियाँ चाहकर भी यूज़र की गोपनीयता की रक्षा नहीं कर पातीं, क्योंकि “कानून पालन” का दबाव इतना ज़्यादा होता है कि वो विरोध नहीं कर पातीं। यह एक ऐसा मसला है जहाँ कानून, राजनीति और टेक्नोलॉजी, तीनों आपस में टकराते हैं और इसका हल आसान नहीं है।

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