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National Democratic Alliance (NDA) का “Manifesto”
आजकल हिंदुस्तान के सियासी (राजनीतिक) माहौल में वोट और विधानसभा इलेक्शन के वादों की जैसे बाढ़ सी आ गई है। हर पार्टी जनता को अपनी तरफ खींचने के लिए बड़े-बड़े दावे कर रही है। ख़ास तौर पर बिहार में आने वाले विधानसभा चुनाव, जो 6 और 11 नवंबर को होने वाले हैं, उन पर सबकी नज़रें टिकी हुई हैं।
इसी सिलसिले में भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) की अगुवाई में एनडीए (NDA) ने भी अपना संयुक्त Manifesto पेश कर दिया है, जिसे उन्होंने बड़े जोश और यक़ीन के साथ “संकल्प पत्र” का नाम दिया है।
इस “Manifesto” में सरकार बनने पर किए जाने वाले वादों की लंबी लिस्ट दी गई है जिसमें नौकरियों से लेकर किसानों, महिलाओं और युवाओं तक के लिए कई नई योजनाओं का ज़िक्र है। बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का कहना है कि ये सिर्फ वादे नहीं, बल्कि बिहार के विकास का “रोडमैप” हैं। अब देखना ये है कि जनता इन दावों पर कितना यक़ीन करती है और क्या वाक़ई ये वादे ज़मीनी हक़ीक़त में तब्दील हो पाते हैं या नहीं।
NDA Manifesto के प्रमुख वादे
“Manifesto” में इस बार कई बड़ी और ध्यान खींचने वाली घोषणाएँ की गई हैं, जिन्होंने पूरे बिहार की सियासत में जैसे हलचल मचा दी है। हर तरफ इसी पर चर्चा है कि एनडीए के ये वादे अगर पूरे हुए तो सूबे (राज्य) की सूरत ही बदल सकती है। नीचे कुछ अहम और दिलचस्प बातें दी जा रही हैं
एक करोड़ नौकरियों का बड़ा वादा:
NDA ने इस चुनाव में सबसे बड़ा दांव “एक करोड़ नई नौकरियों” का लगाया है। कहा जा रहा है कि सरकार बनने के बाद बिहार में सरकारी और प्राइवेट दोनों सेक्टर में बड़े पैमाने पर रोजगार के मौके पैदा किए जाएंगे।
इसके साथ ही हर जिले में “मेगा स्किल सेंटर” खोलने का प्लान है, जहाँ नौजवानों को वर्ल्ड-क्लास ट्रेनिंग दी जाएगी ताकि वो देश और दुनिया में कहीं भी काम करने लायक बन सकें। “स्किल सेंसस” यानी युवाओं की क्षमता का सर्वे कराया जाएगा ताकि हर शख्स को उसके हुनर के हिसाब से मौका मिल सके।
महिलाओं का सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता:
महिलाओं के लिए भी इस “Manifesto” में बड़े-बड़े वादे किए गए हैं। “मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना” के तहत महिलाओं को 2 लाख रुपये तक की आर्थिक मदद दी जाएगी।
इसके अलावा, NDA ने ये भी कहा है कि 1 करोड़ महिलाओं को ‘लाखपती दीदी’ बनाया जाएगा यानी हर महिला कम से कम एक लाख रुपये सालाना कमाने लायक बने।इतना ही नहीं, “मिशन करोड़पति” नाम की एक नई स्कीम भी लाई जाएगी, जिसके ज़रिए महिला उद्यमियों (बिज़नेस करने वाली महिलाओं) को करोड़पति बनने का मौका दिया जाएगा।
किसानों, पिछड़ों और मज़दूर वर्ग के लिए योजनाएँ:
Manifesto में किसानों और पिछड़े वर्गों का भी ख़ास ध्यान रखा गया है। “कर्पूरी ठाकुर किसान सम्मान निधि” के तहत किसानों को हर साल 3,000 रुपये की आर्थिक मदद दी जाएगी, यानी कुल 9,000 रुपये तक।
कृषि ढांचे (एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर) को मज़बूत बनाने के लिए 1 लाख करोड़ रुपये तक के निवेश का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा, सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी देने की बात भी कही गई है।
मत्स्यपालन यानी मछली पालन करने वालों को भी अतिरिक्त मदद दी जाएगी। पिछड़े और अत्यंत पिछड़े वर्गों (EBC) के लिए भी छोटे व्यापार और व्यवसाय शुरू करने के लिए 10 लाख रुपये तक की सहायता का ऐलान किया गया है।
बुनियादी और भौतिक विकास (Infrastructure):
NDA ने कहा है कि बिहार के हर जिले में अब इंडस्ट्री यानी उद्योगों की चहल-पहल बढ़ाई जाएगी। इसके तहत 10 नए इंडस्ट्रियल पार्क्स बनाए जाएंगे और हर जिले में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स यानी उत्पादन केंद्र खोले जाएंगे, ताकि स्थानीय स्तर पर रोज़गार बढ़े।
यातायात और कनेक्टिविटी को बेहतर बनाने के लिए 7 नए एक्सप्रेसवे, 3,600 किलोमीटर रेल ट्रैक का आधुनिकीकरण और पटना समेत चार शहरों में मेट्रो ट्रेन सेवा शुरू करने का वादा किया गया है।
शिक्षा में सुधार और समान अवसर:
शिक्षा के मोर्चे पर भी घोषणापत्र में कई अहम बातें शामिल हैं। एनडीए ने कहा है कि वो बिहार की शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह बदलना चाहता है। केजी से लेकर पीजी तक मुफ्त शिक्षा देने का ऐलान किया गया है, ताकि किसी भी बच्चे की पढ़ाई पैसों की कमी से ना रुके। साथ ही, सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की क्वालिटी सुधारने, नए टेक्निकल कोर्स लाने और डिजिटल एजुकेशन को बढ़ावा देने की भी बात कही गई है।
कुल मिलाकर, NDA का ये “Manifesto” वादों से लबालब है कहीं रोजगार की बात, कहीं महिलाओं के सशक्तिकरण की, तो कहीं किसानों और युवाओं के सुनहरे भविष्य की। अब असल सवाल ये है कि क्या जनता इन वादों पर यक़ीन करेगी, और क्या ये सारे वादे हक़ीक़त में उतर पाएंगे या नहीं
क्यों अहम है यह Manifesto?
बिहार में बेरोज़गारी, पलायन (लोगों का रोज़गार की तलाश में दूसरे राज्यों में जाना) और कमज़ोर औद्योगिक विकास की दिक्कतें कोई नई बात नहीं हैं। ये मसले सालों से चले आ रहे हैं और आज भी ज़्यादातर नौजवानों की ज़िंदगी का सबसे बड़ा दर्द बने हुए हैं।
यही वजह है कि इस बार के चुनाव में युवा मतदाता और महिला वोटर दोनों ही इस “Manifesto” के वादों पर ग़ौर से नज़र रख रहे हैं क्योंकि इसमें उनकी ज़िंदगी से जुड़े कई वादे किए गए हैं।
सियासी नज़रिए से देखा जाए तो ये दस्तावेज़ इस बात का इशारा करता है कि भाजपा–जदयू गठबंधन खुद को बिहार के “विकास के रास्ते पर टिके रहने वाला गठबंधन” बताने की कोशिश कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ़ विपक्ष इसे “सिर्फ वादा-पत्र” कहकर नज़रअंदाज़ कर चुका है।
यानी एक तरफ़ NDA कह रहा है कि वो बिहार को तरक़्क़ी की नई मंज़िल तक ले जाएगा, तो दूसरी तरफ़ विपक्ष इसे सिर्फ़ चुनावी दिखावा बता रहा है। अब वादे जितने बड़े हैं, उम्मीदें भी उतनी ही बढ़ गई हैं। जनता के दिल में ये सवाल भी उठ रहा है कि “क्या ये सब हक़ीक़त में हो पाएगा?” यानी अब असली इम्तिहान “क्रियान्वयन” यानी अमल का होगा।
अगर इस घोषणापत्र के मज़बूत पहलुओं की बात करें तो इसका सबसे बड़ा आकर्षण है रोज़गार और महिलाओं का सशक्तिकरण। इन दोनों मुद्दों ने बिहार के आम लोगों, ख़ासकर युवाओं और महिलाओं के दिल को छुआ है।
इसके अलावा, इसमें कृषि, पिछड़े वर्ग और इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर जो सोच दिखाई गई है, वो बताती है कि ये घोषणापत्र सिर्फ वोट हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि एक “विज़न डॉक्यूमेंट” की तरह पेश किया गया है।
NDA ने इसमें जो साफ-सुथरे निवेश की बातें की हैं, और जो स्किलिंग सेंटर्स, इंडस्ट्रियल पार्क्स व महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने वाली योजनाएँ रखी हैं, वो बिहार को लंबे वक्त में विकास की दिशा में ले जाने की काबिलियत रखती हैं। अगर इन योजनाओं पर सही मायने में अमल हुआ तो वाक़ई बिहार की तस्वीर बदल सकती है।
NDA: Manifesto के वादों को पूरा करने में चुनौतियाँ
NDA के “Manifesto” में इस बार वादों का पैमाना वाक़ई बहुत बड़ा रखा गया है जैसे कि “एक करोड़ नौकरियाँ”, “दस नए इंडस्ट्रियल पार्क”, “चार शहरों में मेट्रो सेवा”, “हर जिले में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट” जैसी घोषणाएँ सुनकर आम लोग भी हैरत में हैं।
लेकिन सच्चाई ये है कि इन तमाम दावों के पीछे कब, कैसे और किस बजट से ये सब होगा इस पर ज़्यादा साफ़-सुथरी जानकारी नहीं दी गई। यानी जनता के मन में ये सवाल ज़रूर उठ रहा है कि “वादे तो बड़े हैं, लेकिन अमल का रास्ता कहाँ है?”
बिहार का हालिया तजुर्बा भी यही बताता है कि यहाँ योजनाओं का ढांचा तो खूब बनाया गया, लेकिन जनसंपर्क, भ्रष्टाचार रोकने की व्यवस्था, और विभागों के बीच तालमेल (coordination) हमेशा से बड़ी चुनौती रही है।
कई योजनाएँ कागज़ों पर शानदार दिखीं, लेकिन ज़मीन पर उनका असर उतना गहरा नहीं पड़ा। यही वजह है कि विपक्ष बार-बार यह कह रहा है कि “सरकार को पहले अपने पुराने वादों का हिसाब देना चाहिए।” उनका कहना है कि जो दावे पहले किए गए थे, उनमें से कितने पूरे हुए, और कितनी योजनाएँ बस फाइलों में धूल फाँक रही हैं इसका जवाब अब तक जनता को नहीं मिला।
इन सबके बीच यह भी सच है कि एनडीए के इस घोषणापत्र में जो योजनाएँ हैं, वो आर्थिक रूप से बेहद महंगी हैं। चाहे वो एक्सप्रेसवे हों, मेट्रो प्रोजेक्ट्स हों या इंडस्ट्रियल पार्क इन सबके लिए भारी भरकम निवेश की ज़रूरत होगी।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या बिहार का मौजूदा बजट और वित्तीय अनुशासन (financial discipline) इतना मज़बूत है कि इतने बड़े पैमाने पर ये प्रोजेक्ट्स संभाले जा सकें? हालाँकि, इसे नकारा भी नहीं जा सकता कि “संकल्प पत्र” में एक बहुत व्यापक दृष्टि (broad vision) दिखाई देती है।
रोज़गार, महिलाओं का सशक्तिकरण, पिछड़े वर्गों की तरक़्क़ी, कृषि विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर पाँचों मोर्चों पर एक संतुलित रूपरेखा रखी गई है। अगर ये सारे वादे ज़मीन पर सही ढंग से उतर गए, तो वाक़ई बिहार का चेहरा बदल सकता है जहाँ आज युवा नौकरी के लिए बाहर जा रहा है, कल वही बिहार “रोज़गार देने वाला राज्य” बन सकता है।
लेकिन जैसा कि इतिहास गवाह है राजनीतिक घोषणाएँ अक्सर भाषणों में गूंजती हैं और चुनाव ख़त्म होते ही हाशिए पर चली जाती हैं। जनता अब ज़्यादा समझदार हो गई है, वो वादों से ज़्यादा अब “परिणाम” (results) देखना चाहती है।
लोग पूछ रहे हैं “क्या ये वादे भी वैसे ही हैं जैसे पहले दादा-दादी के ज़माने में नेता करते थे जो सुनने में अच्छे लगते थे, पर पूरे नहीं हुए?” अब जनता चाहती है वास्तविक बदलाव, महज़ “काग़ज़ी इरादे” नहीं। अगले कुछ महीने बेहद अहम होंगे|
क्योंकि अब हर वादे की तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक जाँच-पड़ताल होगी। मीडिया, विपक्ष और जनता तीनों मिलकर ये देखने वाले हैं कि जो लिखा गया है, उसमें कितनी सच्चाई है और कितना सिर्फ़ चुनावी जोश।
अगर सरकार इस बार अपने दावों पर अमल कर पाती है, तो ये चुनाव बिहार के लिए एक टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है। लेकिन अगर बातें फिर वही पुरानी राह पकड़ लें तो जनता का भरोसा एक बार फिर टूटेगा।
आख़िरकार, लोकतंत्र में जनता ही आख़िरी फैसला देती है। वो समझ चुकी है कि “वादे सुनने के लिए नहीं, निभाने के लिए होते हैं।” अब वो हर दल से यही उम्मीद रखती है कि वो उनके हक़ की बात करे और वो भी अमल के साथ, न कि बस ऐलान के साथ।
जनता की प्रतिक्रिया: उम्मीद, एहतियात और एतबार का इम्तिहान
एनडीए के “संकल्प पत्र” पर बिहार की जनता की राय मिली-जुली नज़र आ रही है। कुछ लोग इसे “उम्मीद की नई किरण” कह रहे हैं, तो कुछ इसे “इलेक्शन का इल्मिया” यानी एक और राजनीतिक नज़्म मान रहे हैं।
युवाओं के बीच सबसे ज़्यादा चर्चा एक करोड़ नौकरियों के वादे को लेकर है। पटना, गया, भागलपुर और मुज़फ़्फ़रपुर जैसे शहरों में नौजवानों का कहना है कि अगर वाक़ई इतने बड़े पैमाने पर रोज़गार के मौके बनते हैं, तो बिहार से पलायन बहुत हद तक रुक सकता है। लेकिन साथ ही बहुत से लोग ये भी कह रहे हैं कि “वादे पहले भी हुए हैं, अब हमें नतीजे चाहिए, न कि नारे।”
महिलाओं में भी हलचल है “लाखपती दीदी” और “मिशन करोड़पति” जैसी स्कीमें सुनकर कई महिलाएँ उत्साहित हैं। लेकिन कुछ का कहना है कि पहले से चल रही योजनाओं का असर ज़मीनी स्तर पर बहुत सीमित रहा, इसलिए इस बार वो इंतज़ार में हैं कि सरकार इन वादों को किस तरह निभाती है।
किसानों की तरफ़ से भी प्रतिक्रिया आई है। कुछ किसान मानते हैं कि “कर्पूरी ठाकुर किसान सम्मान निधि” जैसी पहल राहत दे सकती है, मगर MSP और कृषि-निवेश के वादों पर अब वो सीधा सबूत देखना चाहते हैं, सिर्फ़ भाषण नहीं।
कुल मिलाकर जनता का मूड ऐसा है कि वो उम्मीद तो रखती है, लेकिन एहतियात (सावधानी) के साथ। लोगों की जुबान पर एक ही सवाल है “वादे तो बहुत हैं, मगर क्या इस बार सरकार उन्हें निभाने की हिम्मत और नीयत रखती है?”
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