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Manoj Jha का Election Commission को औपचारिक पत्र
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का माहौल इस वक़्त काफ़ी गर्म है| सियासी गलियारों में बयानबाज़ी, रैलियाँ और आरोप-प्रत्यारोप सब अपने चरम पर हैं। लेकिन अब इस पूरे चुनावी शोर में एक नया मोड़ तब आया, जब राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सीनियर नेता और राज्यसभा सांसद Manoj Jha ने चुनाव आयोग (Election Commission) को एक औपचारिक पत्र लिख डाला।
इस पत्र में Manoj Jha ने राज्य की मौजूदा सरकार, यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि बिहार सरकार ने चुनाव आचार संहिता (Model Code of Conduct – MCC) का खुला उल्लंघन किया है और ये कोई मामूली गलती नहीं, बल्कि चुनाव की निष्पक्षता (fairness) पर सीधा सवाल उठाने वाला मामला है।
Manoj Jha का बड़ा आरोप
Manoj Jha ने अपने पत्र में विस्तार से लिखा है कि मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना (Mukhyamantri Mahila Rojgar Yojana) के तहत महिलाओं को सीधा नकद लाभ (direct cash transfer) दिया गया | 17 अक्टूबर, 24 अक्टूबर, और 31 अक्टूबर 2025 को।
अब खास बात ये है कि इन तारीखों पर चुनाव शेड्यूल पहले ही घोषित हो चुका था, और मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC) लागू हो गया था। इसका मतलब है| सरकार को किसी भी तरह का नया वित्तीय लाभ, योजना, या हस्तांतरण करने की अनुमति नहीं थी।
फिर भी, आरोपों के मुताबिक़ ये ट्रांज़ैक्शन किए गए।यहाँ तक कि अगली किश्त 7 नवंबर 2025 को देने की तैयारी बताई जा रही है जो कि दूसरे चरण के मतदान से सिर्फ चार दिन पहले है।
Manoj Jha ने कहा है कि ये सब कोई संयोग नहीं, बल्कि राजनीतिक मंशा (political intent) साफ़ झलकती है मतदाताओं को प्रभावित करने और चुनाव के माहौल को अपने हक में करने की कोशिश।

“चुनावी माहौल को प्रभावित करने की कोशिश”
RJD नेता का कहना है कि इस तरह का नकद वितरण (cash transfer) चुनावी आचार संहिता के उस प्रावधान का सीधा उल्लंघन है जो कहता है कि “कोई भी सरकार चुनाव घोषणा के बाद नए वित्तीय लाभ, योजनाओं या सब्सिडी का ऐलान या वितरण नहीं कर सकती।”
उनके मुताबिक़, NDA सरकार ने जानबूझकर इस नीति को दरकिनार किया और महिलाओं के खाते में पैसे ट्रांसफर करके वोटर्स को प्रभावित करने की कोशिश की। Manoj Jha ने अपने पत्र में ये भी लिखा कि “इस तरह का कदम सीधे-सीधे लोकतांत्रिक संतुलन को बिगाड़ने वाला है।”
Election Commission से सीधी मांग
Manoj Jha ने चुनाव आयोग से लिखित जवाब और तुरंत कार्रवाई की मांग की है। उन्होंने कहा कि अगर ऐसी घटनाओं को नज़रअंदाज़ किया गया, तो बाकी राज्यों और पार्टियों में भी ये संदेश जाएगा कि “चुनाव के दौरान भी सरकारी योजनाओं का इस्तेमाल वोट पाने के लिए किया जा सकता है।”
उन्होंने आयोग से आग्रह किया है कि इस मामले की तत्काल जांच (immediate investigation) की जाए, अगर आरोप सही पाए जाएँ तो राज्य सरकार पर कार्रवाई हो, और भविष्य में ऐसे कदमों पर रोक लगाने के लिए सख़्त दिशा-निर्देश (guidelines) जारी किए जाएँ।
बिहार का चुनावी मंजर और असर
बिहार में पहले से ही माहौल काफ़ी संवेदनशील है। हर पार्टी अपना-अपना वोट बैंक मज़बूत करने में जुटी है NDA विकास और स्थिरता की बात कर रही है, तो RJD रोज़गार, महँगाई और असमानता के मुद्दों को उठा रही है।
ऐसे में अगर “सरकारी योजनाओं के नाम पर नकद हस्तांतरण” जैसा आरोप साबित हो जाता है, तो इसका असर चुनाव के नतीजों पर भी पड़ सकता है। विपक्ष इसे “सरकारी तंत्र का चुनावी इस्तेमाल” बताएगा, जबकि सत्ता पक्ष शायद इसे “पहले से तय योजना का नियमित भुगतान” बताने की कोशिश करेगा।
क्या कहता है Election Commission का कानून?
चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार, जब मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC) लागू हो जाता है तो कोई भी राज्य या केंद्र सरकार नई योजना का ऐलान, पुरानी योजना में बदलाव, या किसी भी तरह का वित्तीय लाभ वितरण नहीं कर सकती।
इसका मकसद यही है कि कोई पार्टी सत्ता का फायदा उठाकर वोटर्स को प्रभावित न करे। अगर RJD का आरोप सही निकलता है, तो ये MCC का सीधा उल्लंघन होगा और चुनाव आयोग को कार्रवाई करनी पड़ेगी।
अब सबकी नज़र चुनाव आयोग पर है। क्या आयोग इस मुद्दे पर कोई स्पष्टीकरण जारी करेगा? क्या सरकार से जवाब माँगा जाएगा? या मामला सिर्फ़ “राजनीतिक बयानबाज़ी” बनकर रह जाएगा?
जो भी हो, इतना तो तय है कि मनोज झा के इस पत्र ने बिहार की सियासत में नई हलचल मचा दी है। अब देखना होगा कि चुनाव आयोग का रुख़ क्या रहता है क्योंकि बात सिर्फ़ एक योजना की नहीं, बल्कि पूरे चुनावी तंत्र की साख (credibility) की है।
MCC का महत्व और इस मामले में इसका संदर्भ
मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC) यानी चुनाव आचार संहिता ये वो नियमों की लिस्ट होती है जिसे चुनाव आयोग (Election Commission) हर बार चुनाव की घोषणा के बाद लागू करता है, ताकि चुनाव निष्पक्ष (fair) और दबाव-मुक्त (free) तरीके से हो सकें। इसका मकसद साफ़ है कोई भी सरकार या पार्टी चुनाव के दौरान ऐसे कदम न उठाए, जिनसे वोटर्स का झुकाव पैसे, तोहफ़ों या वादों के ज़रिए प्रभावित हो जाए।
जैसे ही चुनाव की तारीख़ों का ऐलान होता है, वैसे ही सरकारों को अपने “कामकाज के दायरे” में रहना पड़ता है। मतलब, अब वो नई योजना की घोषणा, किसी को सीधा लाभ देने, या पैसों का वितरण जैसी चीज़ें नहीं कर सकतीं। क्योंकि ये सब कदम वोटर्स को आकर्षित करने या चुनावी फ़ायदा लेने की कोशिश समझे जा सकते हैं।
मनोज झा का आरोप “ये तो सीधा चुनावी फ़ायदा है”
RJD के नेता मनोज झा ने यही मुद्दा उठाया है। उनका कहना है कि बिहार सरकार ने “मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना” के तहत महिलाओं को नकद राशि (cash benefit) दी है 17 अक्टूबर, 24 अक्टूबर, और 31 अक्टूबर 2025 को।
अब गौर करने वाली बात ये है कि इन तारीखों तक चुनाव का शेड्यूल घोषित हो चुका था और MCC लागू थी। यानी, इस दौरान किसी तरह का पैसा देना या योजना चलाना चुनावी नियमों का उल्लंघन माना जाता है।
झा का कहना है कि अगली किश्त 7 नवंबर को दी जानी है जो कि दूसरे चरण के वोटिंग से सिर्फ़ चार दिन पहले है। उनके मुताबिक़, ये सब “सोची-समझी रणनीति” लगती है ताकि महिलाओं को प्रभावित करके राजनीतिक फ़ायदा लिया जा सके। मकसद यही है कि सत्ता में बैठी पार्टी अपने पद का इस्तेमाल वोट पाने के लिए न करे।
मामला इतना अहम क्यों है
अगर ये साबित होता है कि बिहार सरकार ने सच में MCC लागू रहने के दौरान पैसा बाँटा, तो ये सिर्फ़ “नियम तोड़ने” का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक निष्पक्षता (democratic fairness) पर चोट का मामला होगा। विपक्ष का कहना है कि इससे चुनावी माहौल में बराबरी की स्थिति (level playing field) खत्म हो जाती है।

क्योंकि जब सत्ताधारी दल सरकारी योजनाओं के ज़रिए सीधे पैसे या लाभ बाँटेगा, तो मतदाताओं पर आर्थिक दबाव या प्रलोभन (influence) पड़ सकता है। MCC एक तरह का “चुनावी अनुशासन” है।
जैसे स्कूल में एग्ज़ाम के दौरान टीचर कहती है कि “अब कोई नया नोट्स नहीं बाँटना, जो है उसी से काम चलाओ” वैसे ही चुनाव के दौरान चुनाव आयोग कहता है “अब सरकारें कोई नई घोषणा या पैसा बाँटने का काम नहीं करें।” अगर कोई सरकार इस नियम के बावजूद लोगों को राशि ट्रांसफर करती है, तो वो “इम्तिहान में चीटिंग” करने जैसा है और यही बात मनोज झा ने अपने पत्र में उठाई है।
सरकारी पक्ष और प्रतिरक्षा विकल्प
जब भी किसी सरकार पर ऐसा आरोप लगता है, तो विपक्ष के लिए ये बात राजनीतिक हथियार बन जाती है। लेकिन हमेशा कहानी के दो पहलू होते हैं एक आरोप लगाने वाला, और दूसरा सफाई देने वाला।
इस मामले में भी कुछ ऐसा ही माहौल है। सरकार और उसके समर्थक दलों की तरफ़ से कहा जा रहा है कि “ये कोई चुनावी चाल नहीं, बल्कि एक नियमित सरकारी योजना है जो पहले से चल रही है।”
उनका तर्क है कि मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना कोई नई स्कीम नहीं है, बल्कि इसकी किश्तें पहले से तय तारीख़ों पर आती हैं। मतलब, ये ट्रांज़ैक्शन कोई “चुनाव देखते हुए” नहीं किया गया, बल्कि जो पहले से शेड्यूल था, उसी हिसाब से हुआ।
सरकार ये भी कह सकती है कि “राशि वितरण की तारीख़ें पहले ही सिस्टम में दर्ज थीं, और अब जब चुनाव की घोषणा हुई, तो ये तारीख़ें अपने आप उस अवधि में आ गईं।
इसमें कोई मैनिपुलेशन या जानबूझकर की गई चाल नहीं थी।”
उनका ये भी कहना हो सकता है कि “सरकारी योजनाएँ” बंद नहीं की जा सकतीं सिर्फ इसलिए कि चुनाव आ गए हैं क्योंकि इससे लोगों को मिलने वाला लाभ रुक जाएगा, और इसका असर आम जनता पर पड़ेगा।
सरकार की ओर से ये बात भी कही जा रही है कि विपक्ष का यह आरोप महज़ एक राजनीतिक रणनीति है ताकि मीडिया में हंगामा मचे, माहौल गर्म हो और जनता के बीच यह संदेश जाए कि सरकार नियम तोड़ रही है।
लेकिन यहाँ असली पेच ये है कि विपक्ष ने तारीख़ों के हिसाब से ठोस उदाहरण दिए हैं। उन्होंने कहा है कि 17, 24, और 31 अक्टूबर की किश्तें MCC लागू होने के बाद दी गईं, और अगली 7 नवंबर वाली किस्त तो वोटिंग से ठीक पहले है।
यही बात मामले को थोड़ा गंभीर बना देती है। अब ये तय करना कि सरकार सही है या विपक्ष, ये चुनाव आयोग (EC) का काम है उन्हें इस पूरे मामले की जाँच निष्पक्ष तरीके से करनी होगी। क्योंकि अगर ये सिर्फ़ संयोग नहीं, बल्कि वाकई कोई योजनाबद्ध चुनावी लाभ का प्रयास था, तो ये आचार संहिता (MCC) के मूल सिद्धांत के खिलाफ़ होगा।
इस विवाद का राजनीतिक मायना
देखा जाए तो ये पूरा मामला सिर्फ़ नियम या तकनीकी उल्लंघन तक सीमित नहीं है इसके राजनीतिक और सामाजिक मायने कहीं ज़्यादा गहरे हैं। बिहार का सियासी माहौल वैसे भी हमेशा गर्म रहता है, और अब जब 2025 विधानसभा चुनाव करीब हैं, तो हर कदम, हर सरकारी ऐलान, और हर स्कीम का राजनीतिक असर बन जाता है।
बिहार में इस बार चुनाव दो चरणों में हो रहे हैं पहला चरण 6 नवंबर को और दूसरा 11 नवंबर को होगा, जबकि नतीजे 14 नवंबर को आने तय हैं। ऐसे में किसी भी तरह का वित्तीय लाभ या नकद वितरण सीधे-सीधे वोटर्स के मूड को प्रभावित कर सकता है, ख़ासकर महिलाओं, छोटे उपभोक्ताओं और कम-आय वाले परिवारों पर, जो सीधा इस योजना के लाभार्थी हैं।
अब अगर इस तरह के फंड ट्रांसफर को “चुनावी फायदा” मान लिया जाए, तो ये बात चुनाव की पारदर्शिता और निष्पक्षता दोनों पर सवाल उठाएगी। विपक्ष यही कह रहा है कि
सरकार ने “मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना” के ज़रिए एक तरह से मतदाता को लुभाने की कोशिश की है यानी, सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल राजनीतिक प्रचार या वोट-बैंक बढ़ाने के लिए किया गया।
उनका आरोप है कि “डबल इंजन सरकार” का जो नारा दिया गया, वो अब सिर्फ़ नारा नहीं रहा बल्कि शासन और चुनाव प्रचार की सीमाएँ धुंधली कर दी गई हैं। मतलब, जहाँ सरकार जनता की भलाई के नाम पर काम कर रही है, वहीं विपक्ष को लगता है कि ये सब चुनावी रणनीति का हिस्सा बन गया है।
दूसरी ओर, सरकार की ओर से भी एक मज़बूत दलील है उनका कहना है कि ये योजना पहले से चल रही है, और इसका चुनाव की तारीख़ों से कोई लेना-देना नहीं। उनका कहना है कि “राशि वितरण पहले से तय शेड्यूल के मुताबिक़ हुआ, चुनाव की घोषणा बाद में आ गई तो इसमें किसी तरह की साज़िश या जानबूझकर की गई चाल कहाँ हुई?”
अब सच्चाई क्या है ये तो जांच और तथ्यों से ही पता चलेगा। लेकिन एक बात तय है कि ऐसे विवाद लोकतंत्र की सेहत के लिए बेहद अहम हैं। क्योंकि अगर सरकारें अपने संसाधनों का उपयोग चुनावी प्रचार के रूप में करने लगें, तो फिर “निष्पक्ष चुनाव” सिर्फ़ किताबों की बात रह जाएगी।
लोकतंत्र की मज़बूती इसी में है कि सरकारी योजनाएँ, लाभ-वितरण और चुनावी एजेंडा तीनों के बीच एक साफ़ लाइन बनी रहे। मतलब जनता को उसका हक़ तो मिले, लेकिन उसका इस्तेमाल वोट बटोरने के लिए न हो। और शायद यही वजह है कि मनोज झा जैसे नेता और विपक्षी दल इस मामले को सिर्फ़ राजनीतिक बहस नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक जवाबदेही का सवाल मान रहे हैं।
अब देखना ये है कि चुनाव आयोग इस मामले को कैसे संभालता है क्या ये सिर्फ़ तारीख़ों का मेल था या वाकई टाइमिंग का राजनीतिक खेल?
क्या दर्शाता है Manoj Jha का ये कदम
Manoj Jha का ये कदम यानी EC को लिखा गया उनका खत सिर्फ़ एक औपचारिक शिकायत नहीं है, बल्कि एक बड़ा राजनीतिक और नैतिक संकेत भी है। उन्होंने जिस तरह से सवाल उठाए हैं, उससे साफ़ पता चलता है कि अब बिहार का चुनाव सिर्फ़ उम्मीदवारों और रैलियों का मुकाबला नहीं रहा, बल्कि अब असली जंग नीतियों के समय, फंड ट्रांसफर, संसाधनों के इस्तेमाल और प्रचार के माहौल पर भी लड़ी जा रही है।
उन्होंने जो कहा, वो ये बताने के लिए काफी है कि “अब लड़ाई सिर्फ़ कौन जीतेगा या कौन हारेगा की नहीं, बल्कि कौन निष्पक्षता की हद को बनाए रखता है, ये भी मायने रखता है।”
अगर राज्य सरकार ये साबित कर देती है कि जो भी राशि वितरण हुआ, वो पूरी तरह नियमित और योजना-अनुसार था, तो जाहिर है, विपक्ष के आरोप कमज़ोर पड़ जाएंगे। लेकिन अगर जांच में ये पाया गया कि MCC लागू होने के बाद किसी भी वजह से भुगतान की तारीख़ें बदली गईं, या वित्तीय हस्तांतरण का टाइमिंग चुनावी मकसद से तय किया गया था, तो ये सरकार की विश्वसनीयता और पारदर्शिता दोनों पर भारी असर डालेगा।
बिहार जैसे राज्य में, जहाँ जाति, समाज, प्रवास और अर्थव्यवस्था सब मिलकर चुनावी माहौल तय करते हैं, वहाँ इस तरह के मसले बहुत गहराई से जनता को प्रभावित करते हैं।लोग अब सिर्फ़ योजनाओं का लाभ नहीं देख रहे वे ये भी देख रहे हैं कि इन योजनाओं का इस्तेमाल कहीं राजनीतिक फायदे के लिए तो नहीं हो रहा।
यहाँ सवाल सिर्फ़ ये नहीं कि कौन सही है और कौन ग़लत बल्कि सवाल ये है कि क्या शासन-योजनाएँ वास्तव में कल्याण के लिए हैं, या फिर वो इलेक्शन-गणित का हिस्सा बन चुकी हैं? Manoj Jha का ये कहना कि “हम सिर्फ़ योजनाओं के लाभ में भरोसा करें, या ये भी देखें कि वो कब, क्यों, और किस मंशा से लागू की जा रही हैं?” वाकई सोचने पर मजबूर करता है।
अब ये मामला सिर्फ़ किसी तारीख़ या भुगतान का नहीं रहा, बल्कि ये पूरी चुनावी प्रणाली पर भरोसे की परीक्षा बन गया है। क्योंकि अगर जनता को ये महसूस हो गया कि सरकारी योजनाएँ अब राजनीतिक टाइमिंग पर निर्भर हैं, तो फिर लोकतंत्र का असली भरोसा हिल सकता है।
चुनाव आयोग (EC) के लिए ये केस एक टेस्ट केस की तरह है उन्हें ये दिखाना होगा कि वो न सिर्फ़ शिकायत सुनता है, बल्कि निष्पक्ष जांच और ठोस कार्रवाई करने की ताक़त भी रखता है। अब सबकी निगाहें इसी पर टिकी हैं कि EC इस शिकायत पर क्या कदम उठाता है क्या वो सरकार से जवाब मांगेगा, क्या वितरण रोकेगा, या सिर्फ़ चेतावनी देकर छोड़ देगा?
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