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“Gustakh Ishq” एक पुरानी मोहब्बत की तस्वीर
Gustakh Ishq कछु पहले जैसा” एक ऐसी मोहब्बत की दास्तान है जो हमें 90 के दशक की पुरानी दिल्ली की तंग गलियों, खुशबुओं, चहल-पहल और पुराने ज़माने की रूहानी मोहब्बत की याद दिलाती है। इस फिल्म में Vijay Varma और Fatima Sana Shaikh एक ऐसे इश्क़ में डूबे नज़र आते हैं जहाँ जज़्बात गहरे हैं, नज़दीकियाँ सोच से भी ज़्यादा सच्ची हैं और रूह को छू लेने वाली कशिश मौजूद है।
फिल्म का निर्देशन Vibhu Puri ने किया है, और ख़ास बात ये है कि फैशन डिज़ाइनर Manish Malhotra भी इस फिल्म के प्रोड्यूसर के तौर पर जुड़े हुए हैं, तो जाहिर-सी बात है कि फिल्म की लुक, कॉस्ट्यूम और विज़ुअल्स में एक नफ़ासत और शाही अंदाज़ देखने को मिलेगा।
जब फिल्म का ट्रेलर रिलीज़ हुआ तो दर्शकों में हलचल-सी मच गई सबको पुरानी दिल्ली का माहौल, पुरानी हवेलियाँ, चाय-खानें, तांबे जैसे रंग, और वो धीमी-धीमी रफ़्तार वाली मोहब्बत देखकर ऐसा लगा मानो वक्त थोड़ा रुक-सा गया हो। लोगों को पुराने दौर के रोमांस, दिल को छू लेने वाले डायलॉग्स और पुराने लहजे की अदाएं बेहद पसंद आईं, और फैंस को फिल्म का इंतज़ार और भी बढ़ गया।
मगर इसी दीवानगी और इंतज़ार के बीच एक मोड़ ऐसा भी आया जिसने फिल्म को चर्चा के बीच ला खड़ा किया। सेंसर बोर्ड की तरफ़ से फिल्म को एक ख़ास सीन और कुछ डायलॉग्स को लेकर रोक का सामना करना पड़ा है। अब इसी वजह से फिल्म सुर्ख़ियों में है कोई कहता है सीमाएँ पार हो गईं, तो कोई बोलता है कि असली मोहब्बत को यूँ बाँधा नहीं जा सकता।
कुल मिलाकर, Gustakh Ishq: कछु पहले जैसा अब सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक बहस का मुद्दा और इंतज़ार की आग बन चुकी है। देखना दिलचस्प होगा कि सेंसर की परछाई हटकर ये इश्क़ आखिर पर्दे तक पहुँच पाता है या नहीं पर इतना ज़रूर है कि दर्शकों के दिल में इसकी धड़कन अभी-से चल पड़ी है।
CBFC ने क्या मांगा किन शब्दों पर आपत्ति?
जब Gustakh Ishq फिल्म का सर्टिफिकेट लेने का पूरा झंझट वाला सिलसिला शुरू हुआ, तो CBFC की परीक्षण समिति ने फिल्म वालों को साफ़-साफ़ बता दिया कि कुछ शब्द बदलने अनिवार्य हैं। यानी लफ़्ज़ों की वजह से फिल्म को रोका हुआ था, सीन की वजह से नहीं।
सबसे पहले “harami” जैसे तेज़, कड़वे और ताना मारने वाले शब्द पर सवाल उठाया गया। CBFC ने कहा कि इसे पूरी फिल्म में चाहे डायलॉग हों या सबटाइटल बदलना पड़ेगा। नतीजा ये हुआ कि हर जगह “harami” की जगह “kameena/kameeni” डाल दिया गया। मतलब गाली का असर भी रहे, लेकिन आवाज़ थोड़ी नरम हो जाए।
दूसरा मसला “sex” या “s*x” शब्द पर उठा। कमेटी ने कहा कि इसे सीधे-सीधे बोलना ठीक नहीं। तो फिल्म की टीम ने कई जगह इसे “ऐयाशी”, और कुछ जगह “the art of lovemaking” जैसे नफासत भरे, सलीकेदार, पर्देदारी वाले विकल्पों से बदल दिया ताकि बात भी हो जाए और शालीनियत भी बरकरार रहे।

सबटाइटल्स में भी “rascal” जैसे शब्द को “scoundrel” से बदलने की सलाह दी गई, ताकि लहजे में कटुता कम और तहज़ीब थोड़ी ज़्यादा लगे। लेकिन सबसे दिलचस्प बात ये रही कि फिल्म के किसी भी विजुअल पर, किसी भी सीन पर, किसी भी दृश्य पर कोई कैंची नहीं चलाई गई|
मतलब ना कोई रोमांटिक सीन हटाया गया, ना कोई बहस वाला सीक्वेंस, ना कोई गाना, ना कोई क्लोज़-अप। सिर्फ़ भाषा में नर्मी लाई गई, बात बदलना पड़ा अंदाज़ नहीं। इन सब बदलावों के बाद आखिरकार CBFC ने फिल्म को U/A (13+) सर्टिफिकेट दे दिया यानि 13 साल से ऊपर वाले दर्शक इसे देख सकते हैं, बस माता-पिता की सलाह के साथ। कहने को तो शब्द कुछ बदले गए, लेकिन जज़्बात, कहानी, इरादा और Gustakh Ishq की तीव्रता सब वही की वही रखी गई है।
Gustakh Ishq विवाद और बहस: सेंसर vs. अभिव्यक्ति की आज़ादी
CBFC यानी सेंसर बोर्ड का कहना यह है कि उनकी भी कुछ मजबूरियाँ होती हैं। अगर कोई फिल्म “परिवार के लिए देखी जा सकने वाली” कैटेगरी वाला सर्टिफिकेट चाहती है, तो फिर उसे समाज की शालीनता, तहज़ीब और दर्शकों की संवेदनशीलता का भी ख्याल रखना पड़ता है।
बोर्ड के हिसाब से, कुछ लफ़्ज़ आम बातचीत में भले चल जाते हों, लेकिन बड़े पर्दे पर, बच्चों और कम उम्र के दर्शकों के सामने, वही शब्द कठोर, भद्दे या आपत्तिजनक समझे जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, बोर्ड ने कहा कि “harami”, “sex” जैसे शब्द उनकी नज़र में “कच्चे” और “अपशब्द” की श्रेणी में आते हैं|
यानि लोगों के कानों में चुभ सकते हैं, परिवार में बैठे-बैठे सुनने में असहजता पैदा कर सकते हैं, और कम उम्र के बच्चों के लिए समझ से परे या गलत अर्थ देने वाले साबित हो सकते हैं। इसी वजह से CBFC ने फिल्म वालों को सीधे, साफ़ निर्देश दिए कि डायलॉग की भाषा को नर्म, सभ्य और तहज़ीब वाली बनाई जाए मतलब बात वही रहे, लेकिन अंदाज़ शराफ़त वाला हो।
कई लोग यह भी कह रहे हैं कि ये कदम बिल्कुल सही था, क्योंकि फिल्म को U/A (13+) के तहत दिखाया जाना है और 13–14 साल के बच्चों वाली फैमिली अगर एक साथ फिल्म देखने जाए, तो माहौल साफ़-सुथरा रहे, असहजता न पैदा हो, और हर कोई आराम से देख सके ये ज़िम्मेदारी कहीं न कहीं सेंसर बोर्ड की भी होती है।
सादे शब्दों में कहें तो मकसद फिल्म को रोकना नहीं, बल्कि उसे ऐसे अंदाज़ में पेश करवाना था कि इश्क़ भी रहे, तीखापन भी रहे, लेकिन पर्दे की तहज़ीब भी बनी रहे।

अभिव्यक्ति की आज़ादी, फिल्मकारों की रचनात्मक सीमा
लेकिन कहानी का दूसरा पहलू भी है और वो है आलोचना का। फिल्मकारों और रचनात्मक टीम का कहना है कि वो ज़िंदगी की हकीकत, यथार्थ और असली माहौल दिखाने की कोशिश करते हैं। उनके मुताबिक भाषा भी किरदार का हिस्सा होती है, लफ़्ज़ भी जज़्बात की तरह मायने रखते हैं, और कुछ शब्द मीठे नहीं होते, पर सच होते हैं।
क्रिएटिव टीम का तर्क है कि कई बार “harami” जैसा शब्द सिर्फ़ गाली नहीं, बल्कि किरदार की मानसिकता, हालात, गुस्सा, तड़प, और उस दौर का सच्चा माहौल दिखाता है। अगर लेखक या निर्देशक को लगे कि यही शब्द कहानी के असली रंग को बयान करता है, तो फिर उसे बदलना यानी अपनी कला और रचनात्मक आज़ादी पर समझौता
क्या वाकई ठीक है?
कुछ लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं किक्या हमारा समाज वाकई इतना संवेदनशील और नाज़ुक है कि एक फिल्म में बोले गए कुछ तेज़ शब्दों से नैतिकता, संस्कृति या सभ्यता पर बड़ा ख़तरा आ जाएगा? या फिर हम ज़रूरी बहस से बचते हुए भाषा को ही दोषी ठहरा देते हैं?
“Gustakh Ishq” पर फैसला बीच का रास्ता
ये भी सच है कि CBFC के पास कानूनी ज़िम्मेदारी और सामाजिक फ़र्ज़ दोनों हैं। लेकिन इस मामले में “Gustakh Ishq” की टीम ने एक ऐसा रास्ता चुना जहाँ ना कहानी की रूह दबी, ना सेंसर बोर्ड की शर्तें टूटी।
डायलॉग्स में नर्मी और तहज़ीब लाकर, पर सीन में बिना कोई कट लगाए, Gustakh Ishq के निर्माताओं ने दिखा दिया कि रचनात्मकता और सामाजिक ज़िम्मेदारी के बीच संतुलन नामुमकिन नहीं बस समझदारी, इरादा और लहज़ा चाहिए।
U/A सर्टिफिकेट मिलने के बाद ये भी साफ़ हो गया कि Gustakh Ishqफिल्म में “भद्दापन” या “अश्लीलता” नहीं, बल्कि एक नाज़ुक, एहसास से भरी और परिपक्व मोहब्बत की दास्तान दिखाई जाएगी जिसे 13 साल से ऊपर के दर्शक माता-पिता की सलाह के साथ आराम से देख सकेंगे। अंत में बात यहीं ठहरती है कहानी भी बच गई, तहज़ीब भी बच गई, और इश्क़ की गर्मी भी बरक़रार रही।
क्यों चर्चा में Gustakh Ishq
भारत में फिल्मों की भाषा और सामाजिक स्वीकार्यता हमेशा से एक नाज़ुक और संवेदनशील मुद्दा रहा है। यहाँ सिर्फ़ कहानी, गाने और अभिनय ही नहीं, बल्कि बोले गए शब्द, डायलॉग का लहज़ा, और भाषा की तीख़ापन भी लोगों की भावनाओं को छूता है।
ऐसे में “Gustakh Ishq” का मामला एक मिसाल की तरह देखा जा रहा है कि किसी भी फिल्म को बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचना है, तो भाषा के चुनाव पर भी मेहनत और एहतियात करनी पड़ती है।
इस पूरी बहस में दो ताक़तें आमने-सामने नज़र आती हैं एक तरफ़ कलाकार की रचनात्मक आज़ादी, और दूसरी तरफ़ समाज की तहज़ीब, मर्यादा और स्वीकार्यता। यही वजह है कि सेंसर बोर्ड और फिल्मकार दोनों के सामने संतुलन, समझौता और समझदारी तीनों ज़रूरी हो जाते हैं।
U/A सर्टिफिकेट का मतलब भी यही निकलता है कि फिल्म निर्माता और CBFC दोनों परिवारों और युवा दर्शकों को ध्यान में रखते हुए फिल्म को सुरक्षित, आरामदेह और सहज देखने लायक बनाना चाहते हैं। यानी इश्क़ भी रहे, जज़्बात भी रहें, पर परिवार के साथ देखने में झिझक न हो।
“Gustakh Ishq” से एक बात और साफ़ दिखाई देती है आने वाली फिल्मों को भी अब भाषा-संवेदनशीलता पर ध्यान देना पड़ेगा। क्योंकि रचनात्मकता का मतलब हमेशा
बिना बंधन वाली भाषा या बेपरवाह डायलॉग नहीं होता। कई बार नर्म लहज़ा, तहज़ीब-भरी ज़ुबान और सलीके वाला चीनी सरीखा संवाद कहानी को और भी प्रभावशाली बना देता है।
Gustakh Ishq अब सिर्फ़ एक प्रेम कहानी नहीं रही यह एक नज़ीर बन गई है कि कैसे फिल्मकार, समाज, सेंसर बोर्ड, कला, इरादा और संवेदनशीलता एक साथ चल सकते हैं, एक-दूसरे के विरोधी नहीं — सहयात्री बनकर।
CBFC की मांग और निर्माताओं की सहमति ने मिलकर यह दिखा दिया है कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सामूहिक ज़िम्मेदारी भी है जहाँ भाषा की नर्मी, भावनाओं की गहराई और दर्शकों की संवेदनशीलता तीनों का ख़याल रखा जाना चाहिए।
और आख़िर में इश्क़ कहीं भी हो, पुरानी दिल्ली की गलियों में हो या नए जमाने की अपार्टमेंट लाइफ़ में, उसे गुलज़ार भी रखना है और ज़िम्मेदारी के दरीचे भी बंद नहीं करने। “Gustakh Ishq” इसी का इज़हार है इश्क़ हो तो महकता रहे, और फिल्मों की दुनिया हो तो तहज़ीब भी साथ चले।



