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Winter Session 2025 in Parliament: दलों की Powerful Collaboration से लोकतंत्र मजबूत बनने की उम्मीद, SIR पर Positive Dialogue से शांति और समाधान की राह खुल सकती है

Winter Session 2025 in Parliament: दलों की Powerful Collaboration से लोकतंत्र मजबूत बनने की उम्मीद, SIR पर Positive Dialogue से शांति और समाधान की राह खुल सकती है

Winter Session 2025 पहले बढ़ी हलचल

1 दिसंबर 2025 से शुरू होने वाला संसद का Winter Session 2025 शुरू होने से पहले ही दिल्ली की सियासत में काफी हलचल मच गई है। सरकार को भी ये अंदाज़ा है कि इस बार सदन में माहौल थोड़ा गरम रह सकता है, इसलिए केंद्र ने रविवार 30 नवम्बर को एक सर्वदलीय बैठक (all-party meet) बुलाने का फैसला किया है, जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के बड़े नेता मौजूद रहेंगे।

सरकार की तरफ़ से ये कदम इसलिए उठाया गया है ताकि Winter Session 2025 शुरू होते ही लड़ाई-झगड़ा, शोर-शराबा और बार-बार कार्यवाही रुकने वाली नौबत ना आए। यानी पहले ही आपस में बातचीत हो जाए, मसले समझ लिए जाएँ और जितना हो सके उतना आपसी समझौता बनाया जा सके ताकि संसद की कारगुज़ारी चैन से चल सके, कानून पास हो सकें और सत्र का फायदा देश को मिले।

लेकिन हकीकत ये है कि इस सर्वदलीय बैठक के पीछे एक बहुत बड़ा बम जैसा मुद्दा दबा हुआ है जिसका नाम है Special Intensive Revision (SIR)। सियासी गलियारों में माना जा रहा है कि ये मुद्दा जैसे ही संसद के भीतर उठेगा, माहौल एकदम गर्मा जाएगा। विपक्ष की तरफ़ से पहले ही साफ़ कर दिया गया है कि वो इस मुद्दे को हल्के में लेने वाला नहीं है। दूसरी तरफ़ सरकार मानती है कि ये सब चुनाव आयोग का मामला है और इसे बार-बार संसद में खींचना ज़रूरी नहीं।

बस यही वजह है कि हर कोई कह रहा है इस बार Winter Session 2025 में SIR मुद्दा ज़बरदस्त हंगामा खड़ा कर सकता है। सरकार चाहती है कि सत्र शांतिपूर्ण तरीके से चले, लेकिन विपक्ष इस मुद्दे को पूरी ताक़त के साथ उठाने के मूड में है। इसी टकराव को कम करने, माहौल को काबू में रखने और दोनों तरफ़ के नेताओं से बातचीत करने के लिए ही ये सर्वदलीय बैठक बुलाई गई है।

साफ़-साफ़ कहें तो: Winter Session 2025 शुरू होने से पहले सरकार कोशिश कर रही है कि “लड़ाई पहले ही बातों में निपट जाए, संसद में ना भड़के।” लेकिन विपक्ष का रुख देखकर लगता है कि मामला इतना आसान नहीं क्योंकि SIR का मुद्दा हर पार्टी की राजनीति, विश्वास, मतदाता अधिकार और चुनावी भविष्य से जुड़ा हुआ है। यानी बात छोटी नहीं है दिल और दिमाग दोनों गर्म होने वाले हैं।

Winter Session 2025: सर्वदलीय बैठक उद्देश्य, एजेन्डा और सरकार की कोशिशें

Winter Session 2025 बैठक का वक़्त रविवार सुबह 11 बजे तय किया गया है। ये बैठक बुलाने की पहल संसदीय कार्यमंत्री किरन रिजिजू ने की है। रिजिजू ने हर राजनीतिक दल के फ्लोर लीडर्स को बाकायदा निमंत्रण भेजकर कहा है कि सब लोग मिलकर बैठें, बातचीत करें और सत्र शुरू होने से पहले एक साफ़-सुथरा रोडमैप बनाएं ताकि संसद के अंदर का माहौल काबू में रहे।

दरअसल, सरकार को पिछली बार का अनुभव अभी तक याद है। पिछले Winter Session में क्या-क्या हुआ कभी शोर-शराबा, कभी नारेबाजी, कभी विपक्ष का वॉकआउट, तो कभी कार्यवाही बार-बार स्थगित। इन सबके चक्कर में कई अहम विधेयक आधे-अधूरे रह गए, और सारा कामकाज ठहर सा गया। ऐसी बदहाल और अव्यवस्थित स्थिति फिर दोहराई जाए सरकार ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती।

इसीलिए इस बार सरकार चाहती है कि जैसे ही 1 दिसंबर से नया शीतकालीन सत्र शुरू हो, वैसा ढंग-धांसू और सुचारु तरीके से चले। सरकार का प्लान साफ़ है इस Winter Session 2025 में कुल 10 नए विधेयक (Bills) पेश किए जाने हैं, और कोशिश है कि वो बिना तमाशे और बिना रुकावट पारित हो जाएँ।

अब ज़रा उन बड़े-बड़े बिलों पर भी नज़र डालिए जिनके लिए सरकार बेहद गंभीर है:

परमाणु ऊर्जा विधेयक 2025: इससे निजी कंपनियों को परमाणु ऊर्जा सेक्टर में एंट्री मिल सकती है। ये क़दम बहुत बड़ा और दूरगामी माना जा रहा है। उच्च शिक्षा सुधार बिल (Higher Education Commission of India Bill) इसका मकसद ये है कि यूनिवर्सिटीज़ और उच्च शिक्षण संस्थानों को और ज़्यादा स्वायत्तता मिले, और कॉलेजों को मान्यता देने की प्रक्रिया पारदर्शी और आसान बने।

इसके अलावा नेशनल हाईवे संशोधन, कॉरपोरेट लॉ संशोधन, सिक्योरिटीज मार्केट्स कोड, मध्यस्थता कानून संशोधन जैसे कई और महत्वपूर्ण बिल भी कतार में हैं। सरकार की राय साफ़ है अगर विपक्ष सहयोग करेगा, खुलकर चर्चा करेगा और अनावश्यक हंगामा करने के बजाय मुद्दों पर बात करेगा, तो ये अहम विधेयक देश के लिए फायदेमंद साबित होंगे और संसद भी सम्मानजनक और व्यवस्थित तरीके से चल पाएगी।

सरकार चाहती है कि इस बार संसद जंग का मैदान न बने बल्कि बातचीत और समझदारी का महफ़िल बने। क्योंकि अगर विपक्ष और सत्ता पक्ष एक-दूसरे की खींचतान में लगे रहे, तो न देश को फ़ायदा होगा, न लोकतंत्र को, और न ही संसद अपनी असली जिम्मेदारी निभा पाएगी।

SIR विवाद क्यों बन रहा है Winter Session 2025 का सबसे तगड़ा मुद्दा

अब इस पूरी सर्वदलीय बैठक और शीतकालीन सत्र के पीछे सबसे बड़ा और सबसे गर्म मुद्दा जिस पर सबकी निगाहें टिकी हैं वो है SIR। सीधे शब्दों में कहें तो ये मामला एक तरह का सियासी बारूदी सिलिंडर है, जो कभी भी फट सकता है और पूरे सत्र का माहौल गरमा सकता है।

SIR का पूरा नाम है Special Intensive Revision of Electoral Rolls, यानी मतदाता सूची (voter list) की विशेष और गहन समीक्षा। यह अभियान फिलहाल कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चल रहा है। यूं तो ये काम तकनीकी और प्रशासनिक माना जाता है, लेकिन राजनीति में कुछ भी सिर्फ़ कागज़ और फाइलों तक सीमित नहीं रहता — दिलचस्पी और शक दोनों बारीकियों में होता है।

विपक्ष का कहना है कि SIR को संसद में खुलकर उठाया जाए और इस पर बहस हो ताकि देश को साफ़-साफ़ पता चले कि यह मतदाता सूची का पुनरीक्षण कितना पारदर्शी है, कहीं इसमें मतदाता अधिकारों का हनन तो नहीं, और क्या इससे चुनावी माहौल और निष्पक्षता पर कोई असर पड़ सकता है। यानी विपक्ष की भाषा में: “मामला सीधा नहीं, बेहद नाज़ुक है।”

दूसरी तरफ सरकार का रुख बिलकुल अलग है। उसका कहना है SIR चुनाव आयोग (ECI) का काम है, वह संवैधानिक संस्था है, उसके अधिकार बहुत स्पष्ट हैं, और उसकी प्रक्रियाओं में सरकार के स्तर पर दखल देना या उसे संसद में खींचना ठीक नहीं है। सरकार को डर भी है कि अगर इसे संसद में लाया गया तो मुद्दा तकनीकी की जगह राजनीतिक रूप ले लेगा और बैठकों का असली मकसद दब जाएगा।

इसीलिए माना जा रहा है कि सरकार SIR को सर्वदलीय बैठक के एजेंडा में शामिल करने से साफ़ इनकार कर सकती है। और यहीं से टकराव की ज़मीन तैयार होती दिखाई दे रही है। अगर विपक्ष ज़ोर देकर SIR मुद्दा उठाएगा और सरकार उसे लगातार दरकिनार करेगी तो संसद में हंगामा, नारेबाज़ी, विपक्ष का वॉकआउट, कार्यवाही का बार-बार ठप होना जैसी स्थितियाँ बन सकती हैं।

सीधी भाषा में कहें तो SIR मुद्दा इस सत्र को “सुखद और सुकून वाला” नहीं बल्कि “तनावपूर्ण और मुश्किलों से भरा” बना सकता है। विपक्ष इसे छोड़ने के मूड में नहीं है, और सरकार इसे छेड़ने के मूड में नहीं है बस यही मतभेद का धुँआ धीरे-धीरे उस राजनीतिक तूफ़ान में बदल सकता है, जो संसद की कार्यवाही को कहीं से भी पटरी से उतार सकता है।

विपक्ष की तैयारी, सरकार की चुनौती लोकतंत्र की कसौटी

विपक्षी दलों के लिए SIR ऐसा मुद्दा बन चुका है जो उन्हें फिर से एकजुट कर सकता है चाहे हालिया चुनावों में उन्हें कितनी ही मुश्किलों या हार का सामना क्यों न करना पड़ा हो।
राजनीति में अक्सर दल आपस में भिड़े रहते हैं, लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जो सबको एक ही तरफ खड़ा कर देते हैं और SIR उन्हीं में से एक दिख रहा है। यही वजह है कि विपक्ष के नेता खुलकर मान रहे हैं कि “इस मुद्दे पर हम सब साथ हैं, चाहे बाकी मतभेद हों या ना हों।”

दूसरी तरफ केंद्र सरकार के लिए SIR एक बहुत पेचीदा चुनौती है। अगर सरकार ने SIR को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दिया या उसे चर्चा के लायक नहीं माना, तो विपक्ष इसे ऐसे पेश कर सकता है जैसे सरकार लोकतंत्र, पारदर्शिता, मतदाताओं के अधिकार और निष्पक्ष चुनाव व्यवस्था को चोट पहुँचा रही है।

यानी विपक्ष की भाषा में: “ये सिर्फ़ एक चुनावी दस्तावेज़ नहीं ये अवाम की आवाज़ है।” इसीलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर SIR पर टकराव बढ़ा, तो संसद का माहौल तनावपूर्ण, विवादों से भरा, और पूरी तरह अव्यवस्थित हो सकता है।

सरकार की नीयत भले ही बिल्कुल साफ़ हो वह चाहती है कि सत्र शांति के साथ चले, काम हो, कानून पास हों लेकिन विपक्ष अगर SIR पर ज़ोर-शोर से आवाज़ उठाता रहा तो फिर आग धीमी नहीं रहेगी, चिंगारी पूरे सियासी जंगल में फैल सकती है।

और अगर संसद में झगड़ा और गहमागहमी बढ़ गई तो इसका नुकसान सबसे ज़्यादा सरकार के विधायी एजेंडा को होगा। क्योंकि जिन विधेयकों पर सरकार की खास नज़र है परमाणु ऊर्जा विधेयक, उच्च शिक्षा सुधार बिल, आर्थिक और निवेश सुधार बिल, और बाकी कई अहम प्रस्ताव वो सब पीछे रह जाएँगे, अटक जाएँगे या फिर अगली बार तक टल जाएँगे।

सीधी और बिल्कुल सच्ची बात ये हुई SIR मुद्दा सरकार के पूरे विधायी एजेंडा पर एक लंबी काली परछाईं की तरह लटक रहा है। अगर माहौल बिगड़ा तो सत्र का असली मकसद और कामकाज रफ्तार पकड़ ही नहीं पाएगा।

सर्वदलीय बैठक क्या सुलझाव की संभावना है?

संसद का Winter Session 2025 शुरू होने वाला है और उससे पहले जो सर्वदलीय बैठक बुलाई गई है वो सिर्फ़ एक मीटिंग नहीं, बल्कि आने वाले सत्र के माहौल को तय करने वाला बहुत बड़ा मोड़ है।

हर बार की तरह इस बार भी माहौल थोड़ा गरम है, क्योंकि SIR वाला मुद्दा संसद को हिलाकर रख सकता है। विपक्ष पहले ही साफ़ बोल चुका है कि वो इस मुद्दे पर पीछे हटने वाला नहीं, और सरकार भी चाहती है कि सत्र कम से कम विवादों के बीच चल सके।

ऐसे में यह सर्वदलीय बैठक बहुत अहम हो जाती है। अगर इसमें खुलकर बात हुई, ईमानदारी से एक-दूसरे की बातें सुनी गईं, राजनीति से ऊपर उठकर देश और जनता के बारे में सोचा गया तो सत्र आराम से और असरदार तरीके से चल सकता है।

कैसे चल सकती है मीटिंग बेहतर तरफ अगर सरकार और विपक्ष दोनों थोड़ा सख्त लेकिन समझदारी वाला अंदाज़ अपनाएँ, अपने-अपने रवैये को साफ़ रखें, और SIR पर चर्चा के लिए कम से कम रास्ता खुला छोड़ दें तो हालात बहुत सुधर सकते हैं।

विपक्ष को अगर यह एहसास हो जाए कि उसकी बात दबाई नहीं जा रही, उसे बोलने का मौक़ा दिया जा रहा है, तो हंगामे की जगह बहस होगी, और बहस से समाधान निकलेगा।

ऐसे माहौल में सत्र में ज़रूरी विधेयक भी पास होंगे, सरकारी काम भी आगे बढ़ेगा और जनता को भी यह महसूस होगा कि संसद वाकई उनके मुद्दों के लिए काम कर रही है।
यही असल में लोकतंत्र की खूबसूरती होती है तकरार के बीच भी बातचीत जारी रहना।

लेकिन अगर मीटिंग औपचारिक बनकर रह गई अगर यह बैठक सिर्फ़ दिखावे की रही, अगर नेता सिर्फ़ बोलते रहे लेकिन सुनने के लिए कोई दिल नहीं दिखा पाए, अगर राजनीतिक खेमों में बँटकर ताना-बाज़ी और आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गया तो नतीजा सबको पहले ही मालूम है:

संसद में शोरगुल, SIR के मुद्दे पर हंगामा, बार-बार वॉकआउट, सत्र की कार्यवाही रुकना और आखिर में जनता के मुद्दों का दब जाना यानी सत्र शुरू होते ही दूसरा “Political Battle” खुलेगा — टीवी स्क्रीन पर भी और संसद के अंदर भी।

SIR मुद्दा असल में इतना अहम क्यों है? ये सिर्फ़ कोई रिव्यू या प्रोसेस का मामला नहीं है। इसके पीछे पारदर्शिता, भरोसा, जवाबदेही, नागरिक अधिकार और न्याय खड़े हैं।
मतलब लोगों को यह यकीन दिलाना ज़रूरी है कि देश की व्यवस्था ईमानदारी से चल रही है, कानून सबके लिए बराबर है, और फैसले पावर के हिसाब से नहीं बल्कि न्याय के हिसाब से होते हैं।

यह सत्र किसी एक पार्टी की परीक्षा नहीं यह सिर्फ़ ruling party या opposition की परीक्षा नहीं है। यह हमारे लोकतंत्र की credibility की परीक्षा है मतदाताओं का भरोसा, संसद की गरिमा, संविधान की प्रक्रिया और राजनीतिक संस्कार सबकी आज़माइश इसी सत्र में होने वाली है।

अगर सरकार और विपक्ष मिलकर काम करते हैं, भले मतभेद रहें लेकिन बातचीत जारी रहे तो दुनिया को संदेश जाएगा कि भारत का लोकतंत्र परिपक्व है, बातचीत और तर्क पर चलता है।

लेकिन अगर एकतरफ़ा फैसले लिए गए, मनमानी हुई, चालें चली गईं, या विपक्ष को चुप कराने की कोशिश हुई तो यह लोकतंत्र की रूह को चोट पहुँचाएगा और चुनावी सुधारों व संसदीय परंपरा पर सवाल उठेंगे। यह सर्वदलीय बैठक कागज़ी प्रक्रिया नहीं है यह लोकतंत्र की मजबूती या कमजोरी तय करने वाला मोर्चा है। अब फैसला नेताओं के हाथ में है सियासत पहले आएगी, या मुल्क और उसका लोकतंत्र?

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