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Putin India Visit और राजनीतिक गर्माहट
भारत और रूस के रिश्ते कोई आज के नहीं हैं बहुत पुराने और मज़बूत माने जाते हैं। दोनों मुल्क कई सालों से एक-दूसरे के अहम पार्टनर रहे हैं कभी रक्षा (डिफेंस), कभी व्यापार, और कभी कूटनीति (डिप्लोमेसी) के मामले में।
इसी वजह से रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर Putin India Visit बहुत ख़ास और संजीदा माना जा रहा है। दुनिया भर में इस वक़्त हालात काफी पेचीदा हैं बड़ी ताक़तों के बीच तनाव है, युद्ध जैसी सूरत-ए-हाल भी कई जगह मौजूद है, और हर देश अपनी विदेश नीति को संभल-सँभलकर चला रहा है। ऐसे नाज़ुक माहौल में पुतिन का भारत आना अपने-आप में बहुत बड़ी ख़बर है।
अब आम तौर पर जब कोई इतना बड़ा विदेशी दौरा होता है ख़ासकर इतना हाई-लेवल और स्ट्रैटेजिक तो भारत की पुरानी राजनीतिक और लोकतांत्रिक रिवायत यही रही है कि सिर्फ सरकार नहीं, बल्कि विपक्ष और संसद से जुड़े नेता भी शामिल किए जाते हैं। इससे यह मैसेज जाता है कि भारत एक मज़बूत लोकतंत्र है जहाँ सत्ता और विपक्ष दोनों की आवाज़ मायने रखती है। यानी मेहमान मुल्क के सामने पूरा हिंदुस्तान एकजुट और शालीन अंदाज़ में पेश होता है।
लेकिन इस बार हालात कुछ और ही रहे। जैसे-जैसे इस दौरे की तैयारियाँ आगे बढ़ीं, वैसे-वैसे विपक्ष ख़ासकर कांग्रेस की तरफ़ से शिकायतें उठने लगीं। उनका कहना था कि उन्हें न तो बातचीत का मौक़ा दिया जा रहा है और न ही मुलाक़ात के लिए बुलाया जा रहा है। यानी पूरे प्रोग्राम से विपक्ष को एक तरह से बाहर कर दिया गया है।
मामला तब और ज़्यादा गरम हुआ जब Rahul Gandhi ने मीडिया के सामने बड़ा इल्ज़ाम लगा दिया। उनका दावा था कि सरकार जानबूझकर विदेश से आने वाले डेलीगेशंस को हिदायत देती है कि वो विपक्ष के नेता Leader of Opposition से ना मिलें। यानी साफ-साफ तौर पर सरकार इस बात की कोशिश कर रही है कि विपक्ष को विदेशी नेताओं से बात करने का मौक़ा ही न मिले।
Rahul Gandhi का कहना था कि ऐसा पहले कभी नहीं होता था। पुराने दौर में चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की हुकूमत हो या मनमोहन सिंह का शासन जब भी कोई बड़ा विदेशी मेहमान आता था, विपक्ष से मुलाक़ात होना एक आम और सम्मानजनक परंपरा थी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं, और यह बदलाव लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अच्छा नहीं है।
Rahul Gandhi का आरोप: “सरकार नहीं चाहती कि हम मिलें”
Rahul Gandhi का कहना है कि जब भी विदेशों से कोई बड़ा प्रतिनिधिमंडल या डेलीगेशन भारत आता था, तो परंपरा यह रही है कि वो सिर्फ सरकार से ही नहीं बल्कि Leader of Opposition (विपक्ष के नेता) से भी मुलाक़ात करते थे। यह मुलाक़ातें यूँ ही नहीं होती थीं बल्कि यह लोकतंत्र की एक पुरानी और बेहद अहम रिवायत मानी जाती थीं। राहुल का कहना है कि यह कोई नई शुरुआत नहीं, बल्कि बहुत सालों से चली आ रही प्रथा थी।

Rahul Gandhi ने साफ़ लहजे में आरोप लगाया “पहले तो यह आम बात थी कि विदेश से आने वाले डेलीगेशन विपक्ष से भी मिलते थे। लेकिन इस सरकार ने जानबूझकर इस परंपरा को बंद कर दिया है।”
यानी Rahul Gandhi के अनुसार, मौजूदा सरकार ने विदेशी डेलीगेशन और विपक्ष के बीच होने वाली बातचीत को रोकने के लिए पूरा माहौल तैयार कर दिया है। यह बात उन्हें सबसे ज़्यादा चुभ रही है। उनका गुस्सा सिर्फ इसलिए नहीं है कि उनसे मुलाक़ात नहीं करवाई गई बल्कि इसलिए भी कि इससे लोकतांत्रिक संस्कृति और राजनीतिक संतुलन पर सीधा वार होता है।
Rahul Gandhi ने यहाँ सिर्फ नाराज़गी नहीं जताई बल्कि बड़ी गंभीर बात कही। उन्होंने कहा कि यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार के अंदर एक तरह की insecurity यानी असुरक्षा की भावना घर कर गई है। उनके मुताबिक सरकार डरती है कि अगर विदेशी नेता विपक्ष से बात करेंगे, तो भारत की असल और विविध राजनीतिक तस्वीर उनके सामने आ जाएगी न कि सिर्फ सरकार का बताया हुआ एकतरफ़ा narrative।
Rahul Gandhi ने यह भी कहा कि: “सिर्फ सरकार ही देश नहीं है। विपक्ष भी इस मुल्क की आवाज़ है और बेहद अहम आवाज़ है।” उनके मैंसेज का मतलब यह है कि जब कोई बड़ा विदेशी मेहमान भारत आता है, तो उसके सामने भारत की पूरी राजनीतिक विविधता पेश होनी चाहिए न कि सिर्फ सत्ता पक्ष की राय। क्योंकि असल लोकतंत्र वही है जहाँ सिर्फ एक आवाज़ नहीं, कई आवाज़ें मौजूद हों और उनकी इज़्ज़त भी की जाए।
Vajpayee–Manmohan दौर का उदाहरण क्यों दिया गया?
Rahul Gandhi ने अपने आरोप को और मजबूत बनाने के लिए पुराने दौर की मिसालें दीं| उन्होंने कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हो या मनमोहन सिंह का शासन दोनों दौर में विदेशी मेहमानों की मुलाक़ात विपक्ष से करवाई जाती थी। चाहे सरकार NDA की हो या UPA की लोकतंत्र और विपक्ष की भूमिका का सम्मान तब भी बना हुआ था।
यानी विपक्ष को दुश्मन या गैर-ज़रूरी समझा नहीं जाता था बल्कि उसे लोकतंत्र का एक ज़रूरी और बराबरी का हिस्सा माना जाता था।इसीलिए राहुल को यह बात खटक रही है कि जब इतने बड़े दर्जे का दौरा हो जैसे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर Putin का और फिर भी विपक्ष को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया जाए, तो यह बात सिर्फ शिष्टाचार की कमी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है। Rahul Gandhi की नज़र में यह सिर्फ “मुलाक़ात न होना” वाला मसला नहीं, बल्कि राजनीतिक असहमति और लोकतांत्रिक विविधता को दबाने का एक बड़ा संकेत है।
क्यों हुआ यह सवाल और क्या है अहमियत?
लोकतंत्र और पारदर्शिता किसी भी मुल्क की विदेश नीति या कूटनीति का मसला सिर्फ सरकार तक सीमित नहीं होता। यह पूरी राष्ट्र-व्यवस्था का हिस्सा होता है। खासकर तब, जब विपक्ष बड़ी और अहम राजनीतिक ताक़त हो जिसकी अपनी सोच, अपनी आवाज़ और अपने सुझाव होते हैं।

लोकतंत्र में सरकार और विपक्ष दोनों मिलकर ही देश की असली तस्वीर बनाते हैं। विपक्ष की मौजूदगी का मतलब सिर्फ आलोचना नहीं बल्कि सुधार, सवाल, वैकल्पिक सोच और बेहतर रास्तों की तलाश भी होता है।
इसीलिए जब किसी विदेशी नेता या बड़े प्रतिनिधिमंडल का भारत दौरा होता है, तो सामान्य तौर पर यह ज़रूरी माना जाता है कि विपक्ष को भी बातचीत का हिस्सा बनाया जाए। लेकिन अगर विपक्ष को पूरी तरह बाहर ही कर दिया जाए और वो भी उस वक्त जब सालों से यह परंपरा चली आ रही हो तो सवाल उठना लाज़मी है।
क्या विदेशी प्रतिनिधिमंडलों के सामने भारत का वही रूप पेश किया जा रहा है, जिसे सरकार अपनी पसंद से दिखाना चाहती है? क्या वे भारत की वास्तविक, विविध और राजनीतिक सोच वाली तस्वीर से रूबरू हो भी पा रहे हैं या सिर्फ सत्ता पक्ष का लिखा हुआ एकतरफा बयान ही सुन रहे हैं?
राजनीतिक असमानता और भरोसे का संकट
Rahul Gandhi के मुताबिक इस पूरी स्थिति की जड़ सरकार की “insecurity यानी असुरक्षा” है। उनका तर्क है कि सरकार विपक्ष को कमजोर दिखाना चाहती है, ताकि हर बड़ा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फैसला बिना किसी विरोध, सवाल या बहस के आसानी से हो जाए। यानी जो भी डील, समझौते, या रणनीतिक साझेदारियाँ हों उनमें विपक्ष की राय, अनुमोदन या आपत्ति का कोई मतलब न रहे।
यह आरोप सिर्फ राजनीतिक तकरार वाला नहीं बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को छूने वाला है। क्योंकि लोकतंत्र का असल मतलब बहुमत चलाना नहीं बल्कि बहुमत और अल्पमत दोनों की आवाज़ को जगह देना है। अगर विपक्ष को लगातार किनारे पर धकेला जाता रहा, तो धीरे-धीरे लोकतंत्र का संतुलन टूटने लगता है।
देश की विदेशों में छवि भी दांव पर
दुनिया के सामने भारत खुद को एक बड़े लोकतंत्र के रूप में पेश करता है जहाँ बहस है, असहमति है, और विचारों की विविधता है। यह भारत की बहुत बड़ी ताकत है। लेकिन अगर किसी विदेशी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान विपक्ष को पूरी तरह बाहर रखा जाता है, तो यह चीज़ उस छवि को नुकसान पहुँचा सकती है।
क्योंकि जब कोई विदेशी नेता भारत आता है, तो वो सिर्फ सरकार से नहीं मिलता वो पूरे भारत से मिलता है। और भारत सरकार भर नहीं है, भारत सत्ता, विपक्ष, जनता, बहस, असहमति और विविधता सबका मेल है।
अगर विपक्ष की आवाज़ को लगातार अनदेखा किया जाए, तो यह संदेश जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र सिर्फ नाम का है और असहमति बर्दाश्त नहीं की जाती। इसका असर न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सोच पर पड़ेगा, बल्कि देश के अंदर भी लोगों के भरोसे पर चोट पहुँच सकती है। आख़िरकार लोकतंत्र तभी चमकता है जब ताक़त भी हो, विरोध भी हो, और दोनों को बराबर सम्मान मिले।
आलोचना-संभावनाएँ: Rahul Gandhi का आरोप — कितनी प्रासंगिक है?
हालाँकि Rahul Gandhi का लगाया हुआ इल्ज़ाम काफ़ी संवेदनशील और एहम है, लेकिन इसके साथ कुछ वैधानिक और प्रैक्टिकल सवाल भी खड़े होते हैं। मसलन क्या हर बार जब प्रधानमंत्री या कोई सरकारी डेलीगेशन विदेश दौरे पर जाता है, तो विपक्ष के नेताओं से मिलना लाज़मी होता है? क्या ऐसा हर डेलीगेशन चाह कर करता है या ये कोई ज़रूरी प्रोटोकॉल है ही नहीं?
इसके अलावा सुरक्षा, गोपनीय मुलाक़ातें, तैयारियाँ कई बार इतनी सख़्त होती हैं कि मुलाक़ातों का दायरा बहुत सीमित कर दिया जाता है। अब सवाल ये भी उठता है कि क्या सरकार ऐसा सिर्फ़ विपक्ष के डर से करती है या फिर वाक़ई सुरक्षा और प्रोटोकॉल की वजह से? क्या यह परंपरा हर ज़माने में ऐसे ही चलती रही है?
Rahul Gandhi ने वाजपेयी और मनमोहन सिंह के दौर का हवाला दिया लेकिन क्या उस समय भी हर विदेश दौरे पर विपक्ष को मिलवाया जाता था? या सिर्फ़ चुनिंदा मौकों पर ऐसा होता था?
इन बातों का कोई साफ़ जवाब इस वक़्त पब्लिक डोमेन में मौजूद नहीं है और शायद यही वजह है कि यह पूरा मामला, यह इल्ज़ाम और यह माँग आगे और बहस, और चर्चा के लिए दरवाज़ा खोल देता है। अभी तक यह मुद्दा पूरी तरह से क्लियर नहीं हो पाया है इसलिए आने वाले वक्त में क्या सामने आएगा, यही देखने की बात है।
इसका राजनीतिक मतलब और भविष्य में क्या असर हो सकता है
Rahul Gandhi का ये बयान सिर्फ़ एक आरोप की तरह नहीं दिख रहा, बल्कि ऐसा महसूस होता है जैसे वो आने वाले समय में भारतीय सियासत में ख़ासकर विदेश नीति और डिप्लोमेसी के स्तर पर विपक्ष की अहम भूमिका को लेकर एक बड़ी बहस की शुरुआत करना चाहते हैं। मतलब साफ़ है वो कह रहे हैं कि विपक्ष की आवाज़ भी ज़रूरी है, सिर्फ़ सरकार की बात ही हर जगह नहीं चलनी चाहिए।
अगर उनकी ये मांग आगे चलकर गंभीरता से मान ली गई, और हर बार जब कोई बड़ा विदेशी नेता या प्रेजिडेंट, प्राइम मिनिस्टर भारत आए, तो विपक्ष से भी मुलाक़ात कराने का इंतज़ाम किया जाए तो इससे देश की लोकतांत्रिक छवि वाक़ई निखर सकती है, और दुनिया को भी ये संदेश जाएगा कि भारत में सत्ता और विपक्ष दोनों की बात को बराबर अहमियत दी जाती है।
लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ और विपक्ष को बार-बार ऐसे मौकों से दूर रखा गया तो ये लोकतंत्र की और राजनीतिक विविधता की आलोचना बन जाएगा। इससे सियासी ध्रुवीकरण बढ़ सकता है, विपक्ष का भरोसा कमज़ोर पड़ सकता है, और देश में लोकतंत्र के असंतुलन को लेकर शोर और तेज़ हो सकता है।
Rahul Gandhi का “Govt doesn’t want us to meet” सिर्फ़ एक नाराज़गी वाला बयान नहीं बल्कि ये एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता है: क्या जिस लोकतंत्र पर हम इतना फ़ख़्र करते हैं, वो वाक़ई सबके लिए खुला है? क्या उसमें अलग-अलग विचारों, बहस, आलोचना और असहमति की इज़्ज़त है? या फिर लोकतंत्र सिर्फ़ दिखाने के लिए रह गया है असल में फैसले सिर्फ़ एक ही तरफ़ से किए जा रहे हैं?
अगर भारत सच में एक मज़बूत, आधुनिक और सबको साथ लेकर चलने वाला लोकतंत्र बनना चाहता है जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनों की आवाज़ मौजूद हो, और सबको अपनी बात रखने की आज़ादी मिले तो विदेशी दौरों में विपक्ष को शामिल करना सिर्फ़ एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक सम्मान की परंपरा होनी चाहिए।
और अगर ये परंपरा सच में टूट चुकी है जैसा कि Rahul Gandhi कह रहे हैं तो फिर ये मसला हल्का नहीं, बल्कि सोचने पर मजबूर करने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत का कूटनीतिक चेहरा अब सिर्फ़ सरकार द्वारा नियंत्रित एक “प्रदर्शन” बन गया है?
इस पूरे विवाद ने एक बार फिर दिखा दिया है कि विदेश दौरों, सुरक्षा, रणनीति और कूटनीति के नाम पर लोकतंत्र की सबसे बुनियादी नींव यानी पारदर्शिता, बहस, असहमति और सहभागिता पर सवाल उठ खड़े होते हैं। अब देखना ये होगा कि आने वाले वक़्त में ये चर्चा कहाँ पहुँचती है सुलह की तरफ़, या तकरार की तरफ़।
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