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Babri Masjid इतिहास और संवेदनशीलता
Babri masjid असल में 16वीं सदी में बनाई गई थी और सदियों तक एक आम इबादतगाह की तरह रहती रही। लेकिन वक्त के साथ-साथ यह मस्जिद सिर्फ एक इमारत नहीं रही बल्कि हिंदुस्तान की मज़हबी, सांस्कृतिक और सियासी बहसों का सबसे बड़ा निशान बन गई।6 दिसंबर 1992 को जब Babri masjid गिराई गई, तो पूरे मुल्क में मानो तूफ़ान सा आ गया।
शहर-शहर, गली-गली, दिल-दिमाग हर तरफ बेचैनी, ग़ुस्सा और रंजिश फैल गई। उस एक दिन ने हिंदू-मुस्लिम ताल्लुक़ात को इस कदर चोट पहुंचाई कि उसके असर आज तक महसूस किए जाते हैं।
सिर्फ समाज नहीं, बल्कि पूरी सियासत की दिशा तब से बदल गई चुनावी रणनीतियाँ, भाषण, एजेंडे, सब कुछ धर्म के इर्द-गिर्द घूमने लगा।
2024–2025 में जब अयोध्या में राम मंदिर बनकर तैयार हुआ और पुराने मुक़दमे आधिकारिक तौर पर ख़त्म माने गए, तब लगा कि शायद कहानी अब यहीं पर खत्म हो जाएगी।
लेकिन हक़ीक़त यह है कि Babri masjid का मुद्दा अभी भी लोगों के ज़हन और सियासत दोनों में जिंदा है क्योंकि यह सिर्फ पत्थरों और दीवारों का मामला नहीं, बल्कि पहचान, जज़्बात और इतिहास से जुड़ा मसला है।
इसीलिए जब भी किसी जगह Babri masjid के नाम पर नई इमारत, दुबारा निर्माण, या शिलान्यास की बात होती है तो लोगों के दिलों में पहले से मौजूद जज़्बात दोबारा जाग उठते हैं। चाहे वह खुशी हो, दुख हो, ग़ुस्सा हो, भरोसा या डर बाबरी नाम अपने आप में आज भी एक बहुत बड़ा और बेहद संवेदी प्रतीक बन चुका है।
2025 में बंगाल में Babri masjid मामला क्या हुआ
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में हाल की घटनाओं ने Babri masjid का मुद्दा एक बार फिर ज़ोरों पर ला दिया है।6 दिसंबर 2025 को, निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने मुर्शिदाबाद के रेज़िनगर/बेलडांगा इलाक़े में “बाबरी मस्जिद के अंदाज़ में” एक नई मस्जिद की नींव रखी।
लोग इतने बड़ी तादाद में पहुंचे कि पूरा इलाक़ा मानो मेले जैसा लग रहा था हजारों की भीड़ जमा थी, नारे थे, दुआएं थीं और बड़ा उत्साह भी।हालात काबू में रहें, इस वजह से सुरक्षा इंतज़ाम बेहद सख़्त रखे गए।
पुलिस, आरएएफ और केंद्रीय सुरक्षा बल सब तैनात थे, ताकि ज़रा-सी भी ग़लतफ़हमी या अव्यवस्था पैदा न हो।हुमायूं कबीर ने खुले तौर पर कहा कि कुछ लोग इस मस्जिद के निर्माण को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, कुछ “साज़िशें” चल रही हैं, लेकिन वे पीछे हटने वाले नहीं हैं।

उनका दावा था कि हाई कोर्ट के आदेश उन्हें काम जारी रखने की इजाज़त देते हैं इसलिए चाहे जो हो जाए, मस्जिद की तामीर (निर्माण) रुकने वाली नहीं है। उधर अदालत का रुख भी साफ़ था।
इस मसले पर दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कोलकाता हाई कोर्ट ने दखल देने से इनकार कर दिया। अदालत ने यह कहा कि शांति और क़ानून-व्यवस्था बनाए रखना राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है। मतलब साफ़ है कानूनी तौर पर फिलहाल मस्जिद के निर्माण पर कोई रोक नहीं है।
Babri masjid राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएँ विवाद, आरोप, ध्रुवीकरण
पश्चिम बंगाल में Babri masjid के शिलान्यास ने मानो पूरी सियासत में हंगामा खड़ा कर दिया है।भाजपा (BJP) के नेता इस फैसले पर खुलकर बरस पड़े हैं।
उनका कहना है कि यह Babri masjid बनाना कोई साधारण धार्मिक काम नहीं, बल्कि राजनीति का खेल है जिसमें मुस्लिम वोट बैंक को मज़बूत करने और मज़हबी लाइन खींचकर समाज को बाँटने की कोशिश की जा रही है।
भाजपा का रुख साफ़ है उनका कहना है कि “बाबर के नाम” पर देश में किसी भी तरह का स्मारक या इमारत स्वीकार नहीं होगी, क्योंकि बाबरी मस्जिद का इतिहास और उसका विवाद भारत के टूटे हुए साम्प्रदायिक रिश्तों की सबसे दर्दनाक याद दिलाता है।
दूसरी तरफ़ विपक्षी पार्टियाँ जैसे इंडियन नेशनल कांग्रेस इस पूरे मामले को अलग नज़र से देख रही हैं। उनका आरोप है कि इस तरह की गतिविधियों का मकसद पुरानी तकलीफ़ों, पुराने जख़्मों और पुरानी नफ़रतों को फिर से हवा देना है।
कांग्रेस कहती है कि जनता रोज़गार, महंगाई, इलाज, और बुनियादी सुविधाओं के लिए परेशान है, और उसमें सुधार करने के बजाय धर्म के नाम पर राजनीति करना “बिकाऊ और खोखली सियासत” है।
इन हालातों के बीच राज्य प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियों की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ गई है। मुर्शिदाबाद वैसे भी एक बेहद संवेदनशील इलाक़ा माना जाता है यहां पहले भी कई बार सांप्रदायिक तनाव देखने को मिल चुका है।
इसलिए अब ज़रा-सी भी चिंगारी बड़ा फसाद खड़ा कर सकती है। प्रशासन पर अब पूरी नज़र है कि माहौल शांत रहे और अमन-चैन बरकरार रहे।
क्यों Babri masjid मामला अब खास है — महत्व, चुनौतियाँ और भविष्य
।इस विवाद का असर सिर्फ आज की राजनीति तक सीमित नहीं है बल्कि आने वाले वक्त में समाज के ताने-बाने पर भी गहरे निशान छोड़ सकता है। तारीख और प्रतीक की राजनीति 6 दिसंबर वही दिन है जब 1992 में Babri masjid गिराई गई थी — और इसी तारीख़ को नया शिलान्यास करना अपने आप में बहुत बड़ा संदेश देता है।
लोग साफ़-साफ़ समझ रहे हैं कि यह सिर्फ एक मस्जिद की इमारत नहीं, बल्कि इतिहास को याद कराने, पहचान जताने और पुराने घावों को फिर जगाने जैसा कदम है।
मतलब, इस तामीर (निर्माण) के पीछे जज़्बात भी हैं और सियासत भी। सांप्रदायिक तनाव का खतरापश्चिम बंगाल वैसे भी एक संवेदनशील प्रदेश माना जाता है, जहाँ जातीय और धार्मिक नाज़ुकियत पहले से मौजूद है।
खासकर मुर्शिदाबाद जैसे जिलों में ज़रा-सी चिंगारी बड़ा फसाद खड़ा कर सकती है। अगर माहौल गरमाया, तो समाज में दरारें और भी गहरी हो सकती हैं — और भाईचारे पर असर पड़ सकता है।
वोट बैंक और चुनावी चालेंआने वाले चुनावों को देखते हुए यह मुद्दा राजनीतिक नज़र से बहुत मायने रखता है। ऐसे मसले भावनाएँ भड़काते हैं, और भावनाएँ वोटों को प्रभावित करती हैं इसलिए कुछ पार्टियाँ इसका फायदा उठाने की कोशिश कर सकती हैं।
लेकिन इस खेल में सबसे ज़्यादा मुश्किलों का सामना आम जनता को करना पड़ सकता है क्योंकि तनाव और अनिश्चितता उन्हीं की ज़िंदगी में उतरती है। प्रशासन के लिए कठिन इम्तिहानहाई कोर्ट ने इस मामले में दखल देने से मना कर दिया है।
यानी कानूनन रोक नहीं है। अब पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकार, पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों पर है कि वे हालात को काबू में रखें। जरा सी लापरवाही हुई तो स्थिति दंगा-फसाद तक पहुँच सकती है।
ईसलिए हर कदम बहुत सोच-समझकर उठाना होगा। नेताओं और समुदायों के लिए जिम्मेदारीचाहे नेता हों या आम लोग — दोनों को समझदारी, धैर्य और परिपक्वता दिखाने की ज़रूरत है।
मज़हबी और सांस्कृतिक पहचानों के मामलों में भड़काव बहुत आसान होता है, लेकिन रिश्तों को बचाए रखना मुश्किल। यह वक्त नफ़रत भरने का नहीं, बल्कि तहज़ीब, सद्भाव और अमन को बचाए रखने का है ताकि इतिहास की यादों को फिर से ज़हर बनने का मौका न मिले।
आम जनता, मीडिया और Babri masjid क्या उम्मीद करें?
मीडिया, सिविल सोसाइटी, धार्मिक तन्ज़ीमें और आम लोग सबकी नज़र इस वक़्त पश्चिम बंगाल में चल रहे Babri masjid निर्माण lवाले मसले पर टिकी हुई है।
हालात ऐसे हैं कि जो काम एक शांत और इज़्ज़तदार माहौल में किया जा सकता था, अगर बिना बातचीत, बिना क़ानूनी औपचारिकताओं और बिना सभी पक्षों की सहमति के आगे बढ़ा तो छोटा-सा मतभेद भी बड़ा तहलका मचा सकता है।
और समाज में बेवजह की कशमकश पैदा कर सकता है।इसलिए सबसे ज़रूरी है कि स्थानीय लोग, इलाक़े के धर्मगुरु, समाजसेवी और सभी समुदाय आगे आएँ — आपस में बातचीत हो, मसले को समझने और सुलझाने की कोशिश हो, ताकि मामला राजनीति से ऊपर उठकर इंसानी मोहब्बत और सामाजिक भाईचारे की मिसाल बन सके।
चुनावी फायदे और वोट बैंक की दोगली राजनीति से ज़्यादा मुल्क में अमन, भरोसा और आपसी इज़्ज़त की अहमियत है — और इसे बचाए रखना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।
सरकारों को भी चाहिए कि वह हालात को सिर्फ धर्म के चश्मे से न देखें। मुल्क की तरक़्क़ी रोज़गार, कारोबार, पढ़ाई, डॉक्टर-इलाज, सड़कें-पुल, और लोगों की असली ज़रूरतें इन पर भरपूर तवज्जो दी जाए।
अगर यह सारी चीज़ें आगे बढ़ीं, तो मज़हबी पहचान से ऊपर इंसानी पहचान आगे आएगी और समाज में एक-दूसरे के लिए यक़ीन और अपनापन और मज़बूत होगा।भविष्य के लिए भी यह एक बड़ी सीख है।
अगर इस तरह के मसले बार-बार उभरते रहे और हर बार पुरानी बातों को हवा दी गई, तो यह भारत के रंग-बिरंगे सामाजिक और धार्मिक ताने-बाने के लिए अच्छा नहीं होगा।
हमारा मुल्क हमेशा से तमाम मज़हबों, ज़ुबानों और तहज़ीबों का घर रहा है और अगर इतिहास की गलतियों को बार-बार दोहराया गया, तो दर्द भी बार-बार लौटेगा और जख़्म भरने में बहुत वक़्त लगेगा।पश्चिम बंगाल में हाल ही में जो “बाबरी मस्जिद-शिलान्यास” की कोशिश हुई है, वह सिर्फ एक निर्माण का मामला नहीं है।
इसके अंदर धार्मिक पहचान, सियासी बयानबाज़ी और समाज की परीक्षा तीनों पहलू शामिल हैं। 1992 की पुरानी और तकलीफ़देह यादें फिर से सामने आने लगी हैं, जिसकी वजह से लोगों के जज़्बाती जख़्म भी ताज़ा होने लगे हैं।
हर शख़्स को अपने मज़हब पर यक़ीन और उसे मानने का हक़ है ये बिल्कुल सही और जायज़ है। लेकिन इसके साथ-साथ कानून, मोहब्बत-भरा माहौल, और भाईचारा भी उतना ही ज़रूरी है।
अगर इस मसले को समझदारी और सलीके के साथ संभाल लिया गया, तो यह मस्जिद सिर्फ इमारत नहीं बल्कि साथ रहने, एक-दूसरे को अपनाने और भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब को मज़बूत करने की मिसाल बन सकती है।
लेकिन अगर इसमें सियासत, नफरत, या जज़्बात भड़काने की चालें चली गईं, तो मसला सिर्फ बंगाल का नहीं रहेगा बल्कि पूरे समाज के लिए चुनौती बन जाएगा।
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