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Emraan Hashmi की ‘Haq’: महिलाओं के Right और Justice पर बनी एक Empowered फिल्म

Emraan Hashmi की ‘Haq’: महिलाओं के Right और Justice पर बनी एक Empowered फिल्म

Emraan Hashmi “एक उदार मुसलमान” की आवाज़

बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता इमरान हाशमी (Emraan Hashmi) ने अपनी आने वाली फिल्म ‘हक़ (Haq)’ को लेकर मीडिया के सामने एक साफ़ और दिल छू लेने वाला बयान दिया है। उन्होंने कहा कि यह फिल्म किसी भी धर्म या समुदाय को नीचा दिखाने या बदनाम करने के लिए नहीं बनाई गई है। बल्कि, यह एक ऐसी कहानी है जो इंसानियत, इंसाफ़ और बराबरी की बात करती है बिना किसी पक्षपात या नफ़रत के।

इमरान हाशमी ने बताया कि उन्होंने इस फिल्म को एक “उदार मुसलमान” (liberal Muslim) के नज़रिए से किया है। उनका कहना है कि, “मैं चाहता था कि यह कहानी लोगों को सोचने पर मजबूर करे, न कि किसी को ठेस पहुँचाए।” उन्होंने भरोसा दिलाया कि फिल्म में किसी धर्म या समुदाय पर उंगली नहीं उठाई गई है।

‘हक़’ एक लीगल ड्रामा (Legal Drama) फिल्म है, जिसका निर्देशन सुपर्ण एस वर्मा (Suparn S. Varma) ने किया है। यह फिल्म भारत के इतिहास के एक बेहद चर्चित और विवादित केस शाहबानो केस (Shah Bano Case) से प्रेरित है। इस केस में एक मुस्लिम महिला ने तलाक़ के बाद अपने भरण-पोषण (maintenance) का हक़ माँगा था, और इस मुकदमे ने पूरे देश में सामाजिक और धार्मिक बहस को जन्म दिया था।

फिल्म में यामी गौतम और इमरान हाशमी मुख्य भूमिकाओं में नज़र आएँगे। दोनों कलाकारों की जोड़ी पहली बार साथ काम कर रही है, और दर्शक इस नए कॉम्बिनेशन को लेकर काफी उत्साहित हैं।

फिल्म की घोषणा होते ही सोशल मीडिया और कई हलकों में यह चर्चा शुरू हो गई कि कहीं यह फिल्म मुस्लिम समाज की परंपराओं या शरीयत के खिलाफ़ तो नहीं जाएगी। कुछ लोगों ने आशंका जताई कि फिल्म कहीं “धर्म-विरोधी” न निकल आए।

इमरान हाशमी ने इन बातों पर बहुत शालीनता से जवाब दिया। उन्होंने कहा “मैं खुद एक मुसलमान हूँ, और मैं अपनी कम्युनिटी की भावनाओं को बहुत अच्छे से समझता हूँ। जब मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी, तो मैंने सबसे पहले यही देखा कि इसमें किसी की आस्था या धार्मिक पहचान को ठेस न पहुँचे। यह फिल्म इंसाफ़ की बात करती है, न कि किसी धर्म की आलोचना।”

उन्होंने आगे कहा कि, “हमारे समाज में आज भी कई महिलाएँ अपने हक़ के लिए लड़ रही हैं। यह फिल्म उनके जज़्बे और हिम्मत को सलाम करती है।”

फिल्म का संदेश और सामाजिक सन्दर्भ

‘Haq’ सिर्फ़ एक कोर्ट ड्रामा नहीं है यह एक ऐसी कहानी है जो समाज में मौजूद दोहरी सोच, मर्दसत्ता और धार्मिक संवेदनशीलता को बहुत नर्मी से छूती है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या इंसाफ़ की लड़ाई धर्म से बड़ी नहीं होनी चाहिए?

क्या किसी महिला को सिर्फ़ इसलिए अपने अधिकार से वंचित कर देना चाहिए क्योंकि समाज उसे “परंपरा” के नाम पर चुप रहने को कहता है? इस फिल्म के ज़रिए निर्देशक सुपर्ण वर्मा ने ये दिखाने की कोशिश की है कि “धर्म और इंसाफ़ का टकराव असल में इंसानों के बनाए हुए सीमाओं का टकराव है”।

आज के समय में क्यों अहम है ‘Haq’?

वर्तमान दौर में, जहाँ धर्म और पहचान की राजनीति ज़ोरों पर है, ऐसी फिल्में बहुत मायने रखती हैं। ‘हक़’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक बहस की शुरुआत है उस बहस की, जो हमें सोचने पर मजबूर करती है कि बराबरी, इज़्ज़त और इंसाफ़ का असली मतलब क्या है।

इमरान हाशमी का यह स्टैंड इसलिए भी अहम है क्योंकि वह खुद एक “लिबरल मुसलमान” के रूप में अपनी पहचान को सामने रखते हैं। वह नफ़रत या विभाजन की भाषा में नहीं, बल्कि समझदारी और इंसानियत की भाषा में बात करते हैं। उन्होंने कहा“अगर हमारी फिल्मों से लोगों के बीच थोड़ी सी भी समझ और अपनापन बढ़ता है, तो यही सबसे बड़ी जीत होगी।”

‘Haq’ को लेकर जितनी चर्चाएँ हैं, उतनी ही उम्मीदें भी हैं। यह फिल्म सिर्फ़ अदालत की दीवारों के अंदर की लड़ाई नहीं दिखाती, बल्कि समाज के दिलों में चल रही उस खामोश जंग को उजागर करती है जो औरत के हक़, बराबरी और सम्मान की लड़ाई है।

इमरान हाशमी का यह बयान इस बात की गवाही देता है कि बॉलीवुड में आज भी ऐसे कलाकार हैं जो “संवेदनशील, समझदार और समाज से जुड़ी फिल्में” करने की हिम्मत रखते हैं।

Emraan Hashmi का बयान – “उदार मुसलमान” का दृष्टिकोण

Emraan Hashmi ने अपनी फिल्म ‘Haq’ को लेकर जो बयान दिया है, वो न सिर्फ़ सिनेमा की समझ दिखाता है बल्कि उनकी अपनी सोच और शख़्सियत की गहराई भी बयां करता है। उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा“एक लिबरल मुसलमान (liberal Muslim) होने के नाते मैं ये कह सकता हूँ कि मुझे इस फिल्म के नजरिए से कोई परेशानी नहीं हुई। क्योंकि हमने किसी भी कम्युनिटी को बदनाम करने की कोशिश नहीं की है। अगर ऐसा होता, तो मैं ये फिल्म कभी नहीं करता।”

यह बयान बहुत कुछ कह जाता है। इमरान ने ये दिखाया कि वो अपने काम के प्रति ईमानदार हैं और किसी भी ऐसे प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं बन सकते जो किसी धर्म या समाज की भावनाओं को ठेस पहुँचाए।

उन्होंने अपनी शख़्सी ज़िंदगी का ज़िक्र करते हुए भी एक बहुत ही खूबसूरत बात कही “मैंने पार्वती (Parveen) से शादी की है, जो हिन्दू हैं। मेरी फैमिली में मेरा बेटा पूजा भी करता है और नमाज़ भी पढ़ता है। हमारा घर एक तरह का सेक्यूलर उपनिवेश (secular household) है।”

इस एक लाइन में इमरान ने बहुत बड़ा संदेश दे दिया कि असली भारत, असली मज़हब और असली इंसानियत उसी जगह ज़िंदा है जहाँ दिलों में एक-दूसरे के लिए इज़्ज़त और मोहब्बत है।

Emraan Hashmi का कहना है कि उनकी फिल्म ‘हक़’ की सोच भी इसी विविधता और समावेशिता (inclusivity) से जुड़ी हुई है। यानी, यह फिल्म दिखाती है कि अलग-अलग धर्म और संस्कृतियों के बीच भी समझ और हमदर्दी की जगह हो सकती है।

उन्होंने दोबारा यह बात दोहराई कि “फिल्म में किसी भी समुदाय पर उंगली नहीं उठाई गई है, किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है। यह कहानी बस इंसाफ़, बराबरी और इंसानियत की बात करती है।”

Emraan Hashmi की यह बात आज के माहौल में बहुत मायने रखती है, जहाँ अक्सर धर्म के नाम पर लोग एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं। लेकिन इमरान ने अपने बयान से ये साबित किया कि “धर्म को बाँटने की नहीं, जोड़ने की ताक़त बनाना चाहिए।”

उनकी यह सोच और उनका जीवन दोनों इस बात की मिसाल हैं कि एक मुसलमान, एक हिन्दू, और एक भारतीय – सब एक ही परिवार में, एक ही छत के नीचे, मोहब्बत और इज़्ज़त के साथ रह सकते हैं। यही है असली भारत की रूह और बॉलीवुड की खूबसूरती।

सामाजिक-सांस्कृतिक प्रासंगिकता

फिल्म Haq का विषय बहुत ही नाज़ुक और सोचने पर मजबूर करने वाला है। इसमें एक मुस्लिम महिला के तलाक के बाद उसके भरण-पोषण (maintenance) के हक़ की कहानी दिखाई गई है जो आज भी हमारे समाज में बेहद संवेदनशील (super-sensitive) मुद्दा है।

आज के दौर में जहाँ धर्म, पर्सनल लॉ (personal laws), सामाजिक इंसाफ़ और बराबरी के हक़ पर लगातार बहसें चल रही हैं, वहाँ ये फिल्म दर्शकों को सोचने का मौका देती है कि आख़िर असली इंसाफ़ किसे कहते हैं? और क्या समाज में औरत को उसका पूरा हक़ मिल पाता है या नहीं?

Emraan Hashmi का इस फिल्म से जुड़ना और उनका बयान, दोनों ही इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि वो किसी विवाद या उँगली उठाने के लिए नहीं, बल्कि एक सच्ची कहानी दिखाने के लिए आगे आए हैं। वो चाहते हैं कि लोग इस फिल्म को किसी मज़हबी चश्मे से नहीं, बल्कि इंसानियत और हक़ के नज़रिए से देखें।

उन्होंने जब ये कहा कि “मेरी शादी पार्वती से हुई है, जो हिन्दू हैं। मेरे घर में पूजा भी होती है, और नमाज़ भी पढ़ी जाती है।” तो ये बात अपने आप में बहुत बड़ा पैग़ाम देती है। आज के वक्त में, जब लोग धर्म के नाम पर दीवारें खड़ी कर रहे हैं, वहाँ इमरान अपने घर को मोहब्बत और इत्तेहाद (एकता) की मिसाल के तौर पर पेश कर रहे हैं।

बॉलीवुड में ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं जहाँ एक शख़्स अपने निजी जीवन में भी समावेशिता (inclusivity) और बहुलता (pluralism) की मिसाल बन जाए। यह बात हमें ये सिखाती है कि एक इंसान एक साथ कई संस्कृतियों और मज़हबों से जुड़ा हो सकता है, और यही असली हिंदुस्तान की खूबसूरती है।

फिल्म के ज़रिए ये भी दिखाने की कोशिश की गई है कि सिनेमा की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मनोरंजन तक सीमित नहीं होती। एक्टर, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर सभी पर ये जिम्मेदारी होती है कि जब वो किसी सामाजिक या धार्मिक विषय को पर्दे पर लाएँ, तो वो इसे संवेदनशीलता और इज़्ज़त के साथ पेश करें।

Emraan Hashmi का बयान इसी सोच को आगे बढ़ाता है। उन्होंने साफ़ कहा है कि “ये फिल्म किसी को दोषी ठहराने के लिए नहीं, बल्कि सवाल उठाने के लिए बनाई गई है।” और यही बात इस फिल्म को ख़ास बनाती है। क्योंकि किसी समाज को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि हम सवाल करें, सोचें, और फिर बदलाव की राह पर चलें।

चुनौतियाँ और संभावित विवाद

ऐसी फिल्मों के साथ अक्सर एक बात जुड़ी होती है विवाद। समाज में जब भी कोई फिल्म किसी मज़हबी या सामाजिक मुद्दे को छूती है, तो लोगों की राय बँट जाती है। फिल्म Haq के साथ भी कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। कुछ लोग पहले ही ये सवाल उठाने लगे हैं कि क्या ये फिल्म मुस्लिम लोगों की निजी ज़िंदगी और उनके रिश्तों को आलोचना के नज़रिए से दिखाएगी?

असल में, “संतुलित नज़रिए” को बनाए रखना बहुत मुश्किल काम होता है। क्योंकि हर दर्शक का अनुभव, उसका माहौल और उसकी धार्मिक सोच अलग होती है। कोई चीज़ जो एक इंसान को सही लगती है, वही दूसरे को चुभ सकती है। और फिल्म जैसी चीज़, जो दिल और दिमाग़ दोनों पर असर डालती है, उसका प्रभाव तो और भी गहरा होता है।

Emraan Hashmi ने भी इस बात को बखूबी समझा है। उन्होंने कहा “मैं नहीं जानता लोग इस फिल्म को कैसे लेंगे, क्या कहेंगे। लेकिन मेरी नज़र में हमारा मक़सद साफ़ है।” उनका मतलब ये था कि कला और नीयत (intention) दो अलग चीज़ें होती हैं निर्माता या कलाकार का इरादा अच्छा हो सकता है, लेकिन लोगों की सोच और प्रतिक्रिया उस पर अलग-अलग हो सकती है।

हर फिल्म अपने दर्शक के दिमाग़ में एक नई व्याख्या (interpretation) बनाती है। कोई इसे समाज की सच्चाई कहेगा, तो कोई इसे परंपरा पर सवाल उठाने वाला मान लेगा। लेकिन यही तो सिनेमा की असली ताक़त है वो सोचने पर मजबूर करता है, बात छेड़ता है, और लोगों के अंदर सवाल उठाता है।

इस लिहाज़ से, ‘हक़’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक संवाद की शुरुआत है। ये समाज से ये पूछती है कि “क्या औरत को उसका असली हक़ मिल रहा है? क्या इंसाफ़ मज़हब से बड़ा है?”

इमरान हाशमी की ये बात भी गौर करने लायक है कि उन्होंने जानबूझकर एक ऐसे किरदार को चुना जो विवादित हो सकता है, लेकिन ज़रूरी है। क्योंकि अगर कलाकार सिर्फ़ सुरक्षित किरदार ही निभाएंगे, तो समाज में बदलाव कौन लाएगा?

Haq का अवसर और Emraan Hashmi का संदेश

Emraan Hashmi ने हाल ही में कहा कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को ये फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए, क्योंकि “आप इसे बहुत अलग नज़र से महसूस करेंगे।” उनका मतलब ये था कि ‘हक़’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं है, बल्कि एक एहसास है, जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा।

ये फिल्म महिलाओं के हक़ और बराबरी की बात करती है खासकर तलाक़ के बाद उनके अधिकारों को लेकर। ये उन पुरानी सोचों और कानूनों पर भी सवाल उठाती है, जो वक्त के साथ शायद पुराने पड़ गए हैं। इमरान के मुताबिक, इस कहानी का असली मक़सद किसी पर उंगली उठाना नहीं, बल्कि बदलाव की ज़रूरत को सामने लाना है।

आज के दौर में, जब धर्म, समानता और इंसाफ़ जैसे मुद्दों पर लगातार बहस चल रही है, ‘हक़’ जैसी फिल्में समाज को एक नया आईना दिखाती हैं। वो हमें ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं? क्या हम सच में औरतों को उनका असली हक़ दे रहे हैं? क्या हम उस बातचीत के लिए तैयार हैं, जिसमें हमारे अपने सोचने के तरीके पर सवाल उठें?

Emraan Hashmi का कहना है कि ये फिल्म मनोरंजन के साथ-साथ एक सामाजिक बातचीत (social dialogue) भी है। यानी लोग थिएटर से सिर्फ़ तालियाँ बजाकर नहीं, बल्कि सोचते हुए निकलें यही इसका असली मक़सद है।

उन्होंने साफ़ कहा कि ये फिल्म किसी समुदाय को बदनाम करने के लिए नहीं बनी है। बल्कि, ये एक कोशिश है न्याय, संवेदनशीलता और इंसाफ़ की बात को आगे बढ़ाने की। इमरान ने कहा कि एक ज़िम्मेदार कलाकार होने के नाते, उनका फर्ज़ बनता है कि वो ऐसे विषय चुनें जो समाज में नई सोच लाएँ।

उनके शब्दों में “हम किसी स्तंभ को गिराने नहीं आए हैं, बल्कि एक नई सोच खड़ी करने आए हैं।” आज जब समाज में धर्म और समानता पर बहसें तेज़ हैं, तो ‘हक़’ जैसी फिल्में हमारे लिए एक चुनौती और मौका दोनों हैं। चुनौती इसलिए कि वो हमारी पुरानी धारणाओं को झकझोरती हैं; और मौका इसलिए कि वो हमें सच्चे बदलाव के लिए तैयार करती हैं।

इमरान हाशमी का ये बयान सिर्फ़ फिल्म के प्रमोशन का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक जागरूक आवाज़ है जो कहती है कि “कला का असली काम सवाल उठाना है, ना कि सिर्फ़ मनोरंजन करना।”

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