Table of Contents
Caste Survey – खेल बदलने वाला दस्तावेज़
अगर Bihar Election को किसी एक शब्द में समझाना हो, तो वो शब्द होगा “जाति”। यह सिर्फ किसी की पहचान नहीं, बल्कि राजनीति की धड़कन है। बिहार की राजनीति में जाति का असर इतना गहरा है कि हर नेता, हर चुनाव, हर नारा इसी के इर्द-गिर्द घूमता है। और अब जब 2025 के Bihar Election नज़दीक आ रहे हैं, तो यह Caste Survey समीकरण फिर से पूरी राजनीति को गर्म कर रहा है।

एक तरफ़ सभी दल अपने-अपने पारंपरिक वोटबैंक को सँभालने में लगे हैं कोई यादवों को रिझा रहा है, कोई कुर्मी, कोई दलित, तो कोई सवर्णों का भरोसा बनाए रखने की कोशिश कर रहा है। दूसरी ओर, बिहार जातीय सर्वे (Bihar Caste Survey) के नतीजे ने इस पुरानी सियासत में एक नया तूफ़ान ला दिया है।
Caste Survey का झटका
नीतीश कुमार की सरकार ने जो जातीय सर्वे कराया था, उसके नतीजे आने के बाद से बिहार की राजनीति जैसे हिल गई है। सर्वे के मुताबिक़ – OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) और EBC (अति पिछड़ा वर्ग) मिलाकर बिहार की आबादी का करीब 63% हिस्सा हैं। SC/ST (दलित और आदिवासी) समुदाय लगभग 21% हैं।
जबकि सवर्ण यानी ऊँची जातियाँ ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ ये मिलकर 15% से भी कम हैं। ज़रा सोचिए जब आबादी का इतना बड़ा हिस्सा पिछड़ा और अतिपिछड़ा वर्ग हो, तो सत्ता की चाबी भी तो उन्हीं के हाथों में होगी ना? यही कारण है कि आज हर पार्टी अपने आपको “पिछड़ों की असली आवाज़” बताने में जुटी हुई है।
नीतीश कुमार की चाल
नीतीश कुमार Caste Survey के ज़रिए एक बार फिर से अपनी सोशल इंजीनियरिंग का खेल खेलने की कोशिश में हैं। वो यह संदेश देना चाहते हैं कि “देखिए, बिहार में असली ताकत तो पिछड़ों और गरीबों के पास है, और मैं उन्हीं का प्रतिनिधि हूँ।”
उन्होंने सर्वे के आँकड़े सार्वजनिक करवाकर भाजपा और कांग्रेस दोनों को मुश्किल में डाल दिया है। भाजपा जहाँ परंपरागत रूप से सवर्ण और शहरी वोट पर निर्भर रही है, वहीं कांग्रेस अब मुसलमानों और दलितों के सहारे राजनीति करना चाहती है। लेकिन नीतीश की चाल ये कहती है कि “जो बहुसंख्यक हैं, वही बिहार की दिशा तय करेंगे।”
लालू यादव का ‘मंडल कार्ड’
अब जब बात पिछड़ों की आती है, तो लालू यादव का नाम अपने आप जुड़ जाता है। लालू जी ने 90 के दशक में “मंडल बनाम कमंडल” की राजनीति को जन्म दिया था यानी धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि जाति के नाम पर राजनीति। आज उनके बेटे तेजस्वी यादव उसी रास्ते पर चल रहे हैं। उनकी पूरी कोशिश है कि यादव, मुसलमान और पिछड़े वर्ग को एकजुट करके एक बड़ा ‘महागठबंधन’ खड़ा किया जाए।
RJD का दांव: सामाजिक न्याय 2.0
राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की सियासत का असली चेहरा हमेशा से लालू प्रसाद यादव की मशहूर “MY” यानी मुस्लिम-यादव राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। सालों तक यही फ़ॉर्मूला पार्टी की जीत की कुंजी बना रहा मुसलमानों का भरोसा और यादवों का वोट, यही RJD की बुनियाद थी। लेकिन अब वक़्त बदल चुका है, और हालात भी।
जातीय सर्वे (Caste Survey) आने के बाद पार्टी ने अपने सियासी खेल में बड़ा बदलाव किया है। अब RJD की नई पहचान बन रही है “सामाजिक न्याय 2.0”।इसका मतलब साफ़ है अब बात सिर्फ यादव और मुस्लिम की नहीं होगी, बल्कि हर उस तबके की होगी जो पिछड़ा, गरीब और हाशिये पर खड़ा है।
तेजस्वी यादव का नया अंदाज़
तेजस्वी यादव, जो आज RJD का चेहरा हैं, लगातार एक नई भाषा बोल रहे हैं। वो कहते हैं “अब RJD सिर्फ यादवों या मुसलमानों की पार्टी नहीं रही, अब हर गरीब, हर मेहनतकश, हर वो शख़्स जो हक़ से वंचित है वही हमारा साथी है।”
तेजस्वी की यह लाइन सुनकर साफ़ लगता है कि वो अब लालू युग की सीमाओं से बाहर निकलकर एक नए दौर की राजनीति करना चाहते हैं। उनका मक़सद है पार्टी को ज्यादा समावेशी (inclusive) बनाना, ताकि जो तबके पहले RJD से दूर थे, वो भी अब साथ आएँ।
EBC और दलितों पर फोकस
पार्टी ने यह साफ़ कर दिया है कि आने वाले 2025 विधानसभा चुनाव में वह EBC (अति पिछड़ा वर्ग) और दलितों को ज़्यादा टिकट देने पर विचार कर रही है। इसका मतलब है कि अब वो सिर्फ यादव-मुस्लिम पर निर्भर नहीं रहना चाहती।
तेजस्वी जानते हैं कि बिहार में आबादी का बड़ा हिस्सा इन्हीं वर्गों से आता है और अगर ये सब मिल जाएँ, तो सत्ता की राह आसान हो जाती है। यानी, अब RJD का नारा है “हर पिछड़ा, हर गरीब RJD हमारा नाम है, सामाजिक न्याय हमारा काम है।”
जातीय सर्वे: एक राजनीतिक हथियार
तेजस्वी यादव लगातार जातीय सर्वे का मुद्दा उठा रहे हैं। उनका तर्क बहुत सीधा है “जब आबादी का बड़ा हिस्सा पिछड़ों और गरीबों का है, तो सत्ता में भी उनका हिस्सा ज़्यादा होना चाहिए।”
यह बात आम लोगों को बहुत सीधी और सच्ची लगती है जैसे कोई उनके दिल की बात बोल रहा हो। RJD इस सर्वे को अब एक “राजनीतिक हथियार” की तरह इस्तेमाल करना चाहती है यानी लोगों को यह एहसास दिलाना कि अगर आबादी में आप बहुसंख्यक हैं, तो राजनीति में भी आपकी आवाज़ सबसे बुलंद होनी चाहिए।
लालू यादव की विरासत और नया रंग
तेजस्वी अपने पिता लालू प्रसाद यादव की “सामाजिक न्याय” वाली विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन थोड़ा नए ढंग से। जहाँ लालू जी ने 90 के दशक में ‘मंडल बनाम कमंडल’ की लड़ाई लड़ी थी, वहीं तेजस्वी अब ‘रोज़गार, शिक्षा और प्रतिनिधित्व’ को जोड़कर एक नया सामाजिक न्याय मॉडल बनाना चाहते हैं। वो कहते हैं कि अब सिर्फ जाति पहचान नहीं, बल्कि आर्थिक बराबरी और नौकरी का हक़ भी ज़रूरी है।
BJP की रणनीति: ‘सबका साथ’ से ‘नए समीकरण’ तक
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की बिहार में सियासी पहचान अब तक साफ़ रही है पार्टी का सबसे मज़बूत आधार रहा है सवर्ण वर्ग और शहरी वोटबैंक। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। जातीय सर्वे (Caste Survey) के नतीजे आने के बाद भाजपा को भी एहसास हो गया है कि सिर्फ “हिंदुत्व और विकास” की राजनीति से बिहार के उस 63% पिछड़े वर्ग तक पहुँचना आसान नहीं है, जो अब सियासत का असली फ़ैसला करता है।
भाजपा की नई चाल
अब भाजपा ने अपनी रणनीति में बड़ा फेरबदल किया है। पार्टी ने यह समझ लिया है कि अगर उसे बिहार में मजबूती से खड़ा होना है, तो उसे सिर्फ मंदिर या राष्ट्रवाद की बात नहीं करनी होगी बल्कि हर उस समुदाय तक पहुँचना होगा जो अब तक उससे दूर रहा है।
इसीलिए अब भाजपा की नज़र है EBC (अति पिछड़ा वर्ग) के छोटे मगर असरदार समूहों पर जैसे निषाद, कुशवाहा, बिंद, नोनिया, तेली, पासी वग़ैरह। ये वो जातियाँ हैं जो पहले नीतीश कुमार और RJD जैसे दलों के साथ जाती थीं, लेकिन अब भाजपा इन्हें अपने साथ जोड़ने की पूरी कोशिश में है।
“लाभार्थी राजनीति” का नया चेहरा
भाजपा अच्छी तरह जानती है कि जातीय समीकरण बदलने में वक्त लगता है। इसलिए वो लोगों के दिल तक पहुँचने का रास्ता सरकारी योजनाओं और सुविधाओं से निकाल रही है यानी “लाभार्थी राजनीति”। पार्टी यह संदेश दे रही है कि “हम जाति नहीं देखते, हम तो हर उस इंसान तक पहुँचते हैं जिसे सरकार की योजना का लाभ मिलना चाहिए।”
चाहे वो प्रधानमंत्री आवास योजना हो, उज्ज्वला गैस योजना, जनधन खाता, या आयुष्मान भारत भाजपा यह दिखाना चाहती है कि उसने गरीब और दलित समाज को सीधे केंद्र सरकार से जोड़ दिया है। इसी को वो “समाज जोड़ो, राष्ट्र जोड़ो” का नारा कहती है।
“जाति से ऊपर विकास” नया नारा, पुराना खेल
पार्टी के बड़े नेता बार-बार कह रहे हैं कि “जातीय सर्वे का इस्तेमाल समाज को बाँटने के लिए किया जा रहा है। भाजपा समाज को नहीं बाँटती, हम तो विकास और राष्ट्रीय एकता की राजनीति करते हैं।”
सुनने में ये बात बहुत साफ़ और सही लगती है। लेकिन अगर आप ज़मीन पर उतरकर देखें, तो खेल कुछ और ही है। पार्टी बाहर से “जाति से ऊपर” की बात करती है, मगर अंदर से जातियों तक पहुँचने की पूरी प्लानिंग भी कर रही है।
“पन्ना प्रमुख नेटवर्क” की जातिवार रणनीति
भाजपा का एक बहुत मजबूत संगठन तंत्र है जिसे कहते हैं “पन्ना प्रमुख नेटवर्क”। मतलब, हर वोटर लिस्ट के “एक पन्ने” पर जो मतदाता दर्ज हैं, उनके लिए एक कार्यकर्ता जिम्मेदार होता है वो उनके घर जाता है, उनकी जाति, पेशा, परिवार, सब जानता है, और चुनाव के वक्त उनसे सीधा संपर्क रखता है।
अब यही नेटवर्क जातिवार आधार पर मजबूत किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर अगर किसी इलाके में कुशवाहा या निषाद समाज की आबादी ज़्यादा है, तो वहाँ उसी समाज से आने वाले कार्यकर्ता को “पन्ना प्रमुख” बनाया जा रहा है।
दलित बस्तियों में महादलित समुदाय के लोग ही संपर्क का चेहरा होंगे। यानी भाजपा बाहर से कह रही है कि “हम जाति की राजनीति नहीं करते।” लेकिन अंदर से वो भी उसी खेल को थोड़े अलग अंदाज़ में खेल रही है और बहुत समझदारी से।
भाजपा की दोहरी रणनीति
भाजपा की रणनीति को अगर आसान लफ़्ज़ों में कहें तो कुछ यूँ है ऊपर से: “हम जाति से ऊपर हैं, हम विकास की बात करते हैं।” अंदर से: “हर जाति तक पहुँचो, हर वोट को पकड़ो।” यानि पार्टी का असली मकसद ये नहीं कि जाति की राजनीति को ख़त्म किया जाए, बल्कि ये कि उसके ढाँचे को अपने हक़ में ढाला जाए।
अब देखना ये है कि क्या भाजपा वाकई उस 63% पिछड़े और दलित समाज तक अपनी पहुँच बना पाएगी या नहीं। क्योंकि बिहार की राजनीति में जाति सिर्फ पहचान नहीं, बल्कि भरोसा भी है और यह भरोसा रातों-रात नहीं बनता। लेकिन भाजपा जिस तरह से योजनाओं, संगठन और प्रचार का इस्तेमाल कर रही है, उससे इतना तो साफ़ है कि वह “हिंदुत्व + लाभार्थी + जाति-संतुलन” का एक नया मॉडल तैयार कर रही है।
जेडीयू (JDU): सर्वे की जननी, लेकिन सियासी संकट में
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब बिहार में जातीय सर्वे (Caste Survey) करवाया, तो उन्होंने अपने आप को एक बार फिर “सामाजिक संतुलन के रक्षक” की तरह पेश किया।
उनका मक़सद साफ़ था लोगों को यह संदेश देना कि उनकी राजनीति किसी एक जाति या वर्ग की नहीं, बल्कि “सबका सम्मान, सबका साथ” पर टिकी है। यानी, वो वही छवि दोबारा बनाना चाहते थे जिसने उन्हें कभी “सुशासन बाबू” का नाम दिलाया था।
लेकिन बिहार की सियासत हमेशा सीधी नहीं होती यहाँ हर चाल के पीछे एक नई चाल छिपी होती है। नीतीश भले ही सर्वे के ज़रिए “समाजिक न्याय” की बात कर रहे हों, मगर राजनीतिक समीकरण कुछ और ही कहानी सुना रहे हैं।
तेजस्वी और नीतीश के बीच सियासी खटास
INDIA गठबंधन में शामिल होकर नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव के साथ सरकार तो बना ली, लेकिन दोनों के बीच की दूरी कभी मिट नहीं सकी बस मुस्कुराहटों में छिपी रही।
तेजस्वी यादव, जो जातीय सर्वे को अपनी राजनीति का केंद्र बना चुके हैं,|
अब लगातार यह मुद्दा उठा रहे हैं कि “जिनकी आबादी ज़्यादा है, उन्हें सत्ता में ज़्यादा हिस्सा मिलना चाहिए।” यानी सीधा-सीधा संदेश पिछड़े, अति पिछड़े और दलितों का झुकाव RJD की तरफ़ होना चाहिए। यह बात नीतीश कुमार को सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है।
जेडीयू का वोटबैंक खतरे में
नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड (JDU) का पारंपरिक वोटबैंक रहा है कुर्मी, कोइरी और अति पिछड़ा वर्ग (EBC)। यही वो तबके हैं जिन्होंने नीतीश को बार-बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचाया। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं।
अगर RJD जातीय सर्वे के नाम पर इन वर्गों को अपने पक्ष में खींच लेती है, तो नीतीश का यह मजबूत आधार खिसक सकता है। क्योंकि तेजस्वी यादव लगातार वही बात कह रहे हैं जो इन वर्गों को सुनना पसंद है “हमें हमारी आबादी के हिसाब से हक़ चाहिए।”
नीतीश की मुश्किल अपनी ही चाल में फँसना
सबसे बड़ी उलझन यह है कि जातीय सर्वे का जनक तो खुद नीतीश ही हैं। उन्होंने इसे करवाया, आँकड़े जारी करवाए, और सामाजिक न्याय की बात की। लेकिन अब वही सर्वे RJD के लिए सबसे बड़ा हथियार बन गया है।
अब नीतीश कुमार के सामने यह बड़ी चुनौती है कि वो कैसे यह साबित करें कि उन्होंने सर्वे सिर्फ आंकड़ों के लिए करवाया था, राजनीति के लिए नहीं। और साथ ही यह भी रोकें कि यह पूरा मुद्दा तेजस्वी यादव के पक्ष में ना चला जाए।
गठबंधन की राजनीति और ‘विश्वास का संकट’
INDIA गठबंधन में नीतीश और तेजस्वी का रिश्ता अब सहज नहीं रह गया है। बाहर से दोनों एकजुट दिखाने की कोशिश करते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर संदेह और सियासी खींचतान बढ़ती जा रही है।
नीतीश जानते हैं कि तेजस्वी धीरे-धीरे “मुख्यमंत्री पद के उत्तराधिकारी” के रूप में खुद को पेश कर रहे हैं। और जातीय सर्वे की राजनीति उनके लिए उस रास्ते को और आसान बना रही है। ऐसे में नीतीश के सामने दो रास्ते हैं या तो वो इस गठबंधन को नए संतुलन के साथ मज़बूत करें, या फिर अलग राह पकड़ें और अपने पारंपरिक वोटबैंक को फिर से संगठित करें।
नीतीश के लिए अग्निपरीक्षा
नीतीश कुमार को अब एक नाज़ुक संतुलन बनाकर चलना होगा। एक तरफ़ उन्हें अपनी “सामाजिक न्याय और विकास” वाली छवि को बरकरार रखना है, और दूसरी तरफ़ यह भी देखना है कि RJD उसी नारे का इस्तेमाल उनके ख़िलाफ़ ना करे।
वो यह दावा कर रहे हैं कि “जातीय सर्वे समाज को जोड़ने के लिए था, बाँटने के लिए नहीं।” लेकिन बिहार की ज़मीन पर लोग यह भी कह रहे हैं कि अब राजनीति का पूरा खेल “जाति के अंकगणित” पर टिक गया है।
कांग्रेस और वामदल: सीमित पर निर्णायक भूमिका
कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों (CPI, CPI(ML), CPM) का सीधा असर ज्यादा नहीं है, लेकिन इनकी भूमिका गठबंधन की दिशा तय करने में अहम हो सकती है।
कांग्रेस जातीय सर्वे के पक्ष में है, लेकिन वह इसे सीधे जाति‑मतदान तक सीमित नहीं रखना चाहती। उनका कहना है कि यह समान अवसर और रोजगार जैसी बड़ी बहस से जुड़ा होना चाहिए।
वामपंथी दलों ने साफ़ कह दिया है “अगर आबादी का बड़ा हिस्सा पिछड़ा है, तो नीति और बजट में उनका प्रतिनिधित्व भी उतना ही होना चाहिए।”
इन दोनों दलों का झुकाव RJD के सामाजिक न्याय मॉडल की ओर है। लेकिन असली जटिलता सीट बंटवारे में हो सकती है, क्योंकि यही वह मुद्दा है जिस पर गठबंधन में असहमति बढ़ सकती है।
साधारण शब्दों में कहें तो, कांग्रेस और वाम दल RJD को सिद्धांत में समर्थन दे रहे हैं, लेकिन हकीकत में सीटों की राजनीति उन्हें सोचने पर मजबूर करेगी।
INDIA गठबंधन बनाम NDA: जाति समीकरण की खींचतान
2025 के बिहार चुनाव का सबसे बड़ा सवाल यही है क्या INDIA गठबंधन (RJD + JDU + कांग्रेस) जातीय सर्वे की लहर का फायदा उठा कर NDA (BJP + LJP + HAM आदि) को चुनौती दे पाएगा?
INDIA गठबंधन का दावा है कि “हम सामाजिक न्याय, आरक्षण विस्तार और समान अवसर की राजनीति कर रहे हैं।”
वहीं NDA का कहना है कि “हम जातियों को नहीं, पूरे बिहार को जोड़ रहे हैं।”
लेकिन हकीकत यह है कि मतदाता का मन जातीय आंकड़ों से प्रभावित है। अगर RJD और JDU मिलकर पिछड़ों का वोट एकजुट कर लें, तो भाजपा के लिए चुनौती बड़ी हो सकती है। वहीं, अगर NDA अपने EBC और सवर्ण + लाभार्थी वोटबैंक को बनाए रखता है, तो मुकाबला बेहद कांटे का होगा।
जातीय सर्वे का असर सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं है, यह एक संदेश भी बन गया है। यह सर्वे बिहार के हर गाँव और शहर में चर्चा का विषय बन गया। लोग पहली बार समझ रहे हैं कि “हम कितने हैं और सत्ता में हमारा हिस्सा कितना होना चाहिए।”
इससे राजनीतिक चेतना बढ़ी है, खासकर ग्रामीण पिछड़े वर्गों में। यानी जातीय सर्वे अब सिर्फ संख्या की किताब नहीं, बल्कि राजनीतिक जनजागरण का दस्तावेज़ बन चुका है।
2025 का बिहार चुनाव केवल सत्ता बदलने की लड़ाई नहीं होगा। यह तय करेगा कि “क्या जाति अब भी राजनीति की धुरी है, या जनता उससे आगे निकल चुकी है?”
RJD जातीय सर्वे के आंकड़ों पर चल रही है।
BJP अपने विकास और लाभार्थी नेटवर्क के सहारे संतुलन बनाने की कोशिश कर रही है।
JDU अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने में जुटी है।
और जनता अब पहले से ज्यादा सचेत और जागरूक है।
अगर जातीय सर्वे ने राजनीति का केंद्र बदल दिया है, तो 2025 का चुनाव यह बताएगा कि बिहार ने सचमुच “सामाजिक न्याय 2.0” को अपनाया या अभी भी “जातीय पहचान बनाम विकास” की पुरानी बहस में फंसा हुआ है।
यह भी पढ़े –
Sunny Deol turns 68: आतिशबाज़ी, गाने और बॉलीवुड की Best wishes से गूंजा जन्मदिन!
Delhi AQI Severe Alert 2025: क्यों हर साल दीवाली के बाद दम तोड़ती है राजधानी की हवा?



