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Hijab Row: क्या हुआ था असल में?
भारत में एक बार फिर Hijab Row ने ज़ोर पकड़ लिया है और यह मुद्दा अब सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं रहा, बल्कि समाज और संविधान से जुड़े बुनियादी सवालों तक पहुँच गया है। इस पूरे Hijab Row के केंद्र में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, जिन पर आरोप है कि उन्होंने एक सरकारी कार्यक्रम के दौरान एक महिला डॉक्टर का हिजाब/नक़ाब हटाया।
यह घटना सामने आते ही देशभर में हलचल मच गई। सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल हुआ, टीवी डिबेट्स शुरू हो गईं और आम लोगों से लेकर राजनीतिक दलों तक, हर तरफ़ से तीखी प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। इतना ही नहीं, इस मामले को भारत के बाहर भी गंभीरता से देखा जा रहा है, जिससे देश की छवि और संवैधानिक मूल्यों पर भी सवाल उठे हैं।
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, बिहार में एक सरकारी कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जहाँ मुख्यमंत्री Nitish Kumar AYUSH डॉक्टरों को नियुक्ति पत्र सौंप रहे थे। इसी दौरान जब एक महिला डॉक्टर मंच पर पहुँचीं, तो उन्होंने अपने चेहरे पर हिजाब/नक़ाब पहन रखा था। उसी पल का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसमें दावा किया गया कि मुख्यमंत्री ने महिला डॉक्टर का नक़ाब हटाया।
यहीं से विवाद ने तूल पकड़ लिया। विपक्षी दलों, सामाजिक संगठनों और आम नागरिकों ने इसे महिला की इज़्ज़त और निजी आज़ादी पर सीधा हमला बताया। लोगों का कहना है कि किसी भी पद पर बैठा व्यक्ति, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, किसी महिला के पहनावे या उसके धार्मिक प्रतीक में दख़ल देने का हक़ नहीं रखता।
गरिमा और आज़ादी का सवाल
इस घटना ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि
क्या सत्ता का पद किसी इंसान के जिस्म या उसके मज़हबी प्रतीकों तक पहुँच का अधिकार देता है?
क्या किसी महिला की सहमति के बिना उसके हिजाब या नक़ाब को हटाना सही ठहराया जा सकता है?
संविधान साफ़ तौर पर हर नागरिक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और धार्मिक आज़ादी का अधिकार देता है। हिजाब या नक़ाब किसी महिला की निजी पसंद हो सकती है, उसकी पहचान और आस्था का हिस्सा हो सकता है। ऐसे में इस तरह की घटना को लोग सिर्फ एक राजनीतिक चूक नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी के तौर पर देख रहे हैं।
समाज में गहरी नाराज़गी
इस मामले के बाद आम लोगों के बीच भी ग़ुस्सा देखने को मिला। कई लोगों ने कहा कि यह सिर्फ एक महिला का मामला नहीं है, बल्कि हर उस महिला की इज़्ज़त का सवाल है, जो अपने पहनावे और आस्था को लेकर खुद फैसला लेना चाहती है। सोशल मीडिया पर यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि अगर एक आम महिला के साथ ऐसा हो सकता है, तो फिर आम नागरिक कितने सुरक्षित हैं?
एक घटना, कई सवाल
Hijab Row अब सिर्फ एक वीडियो तक सीमित नहीं रहा। इसने देश के सामने कई अहम सवाल खड़े कर दिए हैं –
क्या महिलाओं की गरिमा को राजनीति की नज़र से देखा जाना चाहिए?
क्या सत्ता में बैठे लोगों को ज़्यादा ज़िम्मेदारी और संवेदनशीलता नहीं दिखानी चाहिए?
और सबसे अहम, क्या हम सच में संविधान की आत्मा को समझते और मानते हैं?
आज यह मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बन चुका है। लोग उम्मीद कर रहे हैं कि इस विवाद से सबक लिया जाएगा और आगे चलकर महिलाओं की इज़्ज़त, निजी आज़ादी और मज़हबी हक़ूक़ का ज़्यादा एहतराम किया जाएगा। क्योंकि किसी भी लोकतंत्र की असली पहचान यही होती है कि वह अपने नागरिकों की गरिमा और अधिकारों की कितनी हिफ़ाज़त करता है।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) ने किया ‘सबसे कड़ाई से निंदा’ और दी सख्त चेतावनी
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) ने इस पूरे मामले पर बेहद सख़्त रुख अपनाया है। संस्था ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा है कि जो कुछ हुआ है, वह किसी भी तरह से क़ाबिल-ए-बर्दाश्त नहीं है और यह सीधे-सीधे एक महिला की इज़्ज़त और उसकी शख़्सी गरिमा पर हमला है। SCBA ने इस घटना की सबसे कड़ी निंदा करते हुए कहा कि ऐसे कृत्य हमारे संविधान की रूह को चोट पहुँचाते हैं।
(सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) SCBA का कहना है कि मुख्यमंत्री द्वारा किया गया यह व्यवहार इंसाफ़, बराबरी और बिना भेदभाव जैसे उन उसूली सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है, जिन पर हमारा संविधान खड़ा है। जब देश का कोई बड़ा पदाधिकारी इस तरह का रवैया अपनाता है, तो उससे समाज में ग़लत पैग़ाम जाता है और लोगों का भरोसा भी डगमगाता है।
इतना ही नहीं, SCBA (सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) ने इस विवाद में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री संजय निषाद के बयानों को भी सख़्त शब्दों में निंदनीय बताया है। संगठन का कहना है कि इन नेताओं की टिप्पणियों ने हालात को संभालने के बजाय और ज़्यादा बिगाड़ा है। ऐसे बयान न सिर्फ़ महिलाओं की इज़्ज़त को ठेस पहुँचाते हैं, बल्कि बेहद संवेदनशील सामाजिक मसलों को और ज़्यादा भड़काने का काम करते हैं।

SCBA ने दो टूक कहा है कि इस पूरे मामले में बिना शर्त माफ़ी (unconditional apology) दी जानी चाहिए। यह मांग सिर्फ़ मुख्यमंत्री Nitish Kumar तक सीमित नहीं है, बल्कि उन तमाम नेताओं से है, जिन्होंने इस घटना को लेकर अपमानजनक और गैर-ज़िम्मेदाराना बयान दिए हैं। संगठन का मानना है कि माफ़ी माँगना कमजोरी नहीं, बल्कि संवैधानिक और नैतिक ज़िम्मेदारी है।
यह बयान ऐसे वक़्त आया है, जब पूरे देश में इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है। उच्चतम न्यायपालिका से जुड़े वकीलों के इस संगठन का साफ़ संदेश है कि क़ानून और संविधान सबके लिए बराबर हैं। चाहे कोई आम नागरिक हो या फिर सत्ता के ऊँचे ओहदे पर बैठा शख़्स संवैधानिक मूल्यों का पालन हर हाल में ज़रूरी है। लोकतंत्र की मजबूती इसी बात में है कि यहाँ ताक़त से नहीं, बल्कि क़ानून और इंसाफ़ से फैसले होते हैं।
गिरिराज सिंह और संजय निषाद की प्रतिक्रिया – Hijab Row और बढ़ा
यह मामला अब सिर्फ़ हिजाब हटाने की घटना तक महदूद नहीं रह गया है। असल में आग में घी डालने का काम गिरिराज सिंह (BJP) और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री संजय निषाद के बयानों ने किया, जिनकी वजह से पूरा विवाद और ज़्यादा भड़क उठा। इनके कुछ बयान इतने सख़्त, बेहूदा और आपत्तिजनक माने गए कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) ने उन्हें भी खुलकर निंदा के दायरे में ले लिया।
गिरिराज सिंह का बयान सबसे ज़्यादा चर्चा में रहा। उन्होंने कहा कि अगर महिला वहाँ रुकना नहीं चाहती, तो वह “जाए तो जहन्नुम”। इस तरह की ज़ुबान ने लोगों को ग़ुस्से से भर दिया। आम जनता से लेकर बुद्धिजीवियों तक ने कहा कि एक संवैधानिक पद पर बैठे नेता से ऐसी भाषा की उम्मीद नहीं की जाती। लोगों का कहना है कि इस तरह के जुमले नफरत, तंज़ और तौहीन को बढ़ावा देते हैं, जो किसी भी सूरत में ठीक नहीं है।
वहीं, संजय निषाद के बयान भी कम विवादित नहीं रहे। उनके शब्दों को भी कई जगह ग़ैर-ज़िम्मेदाराना और भड़काऊ बताया गया। सामाजिक संगठनों और नागरिक समूहों का कहना है कि ऐसे बयान हालात को शांत करने के बजाय ज़ख़्म पर नमक छिड़कने जैसा काम करते हैं। इसी वजह से इन दोनों नेताओं को भी इस पूरे विवाद के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।
हक़ीक़त यह है कि इस विवाद को इतना बड़ा बनाने में सिर्फ़ एक Hijab Row नहीं, बल्कि नेताओं की अनाप-शनाप और बेतुकी बयानबाज़ी का बड़ा हाथ है। इन बयानों ने आम लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाई है और समाज में बेचैनी पैदा की है। लोग अब यह सवाल उठा रहे हैं कि जब नेता ही अपनी ज़ुबान पर क़ाबू नहीं रखेंगे, तो समाज में संयम, इज़्ज़त और भाईचारे की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
Hijab Row पर देशभर की राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ
इस Hijab Row के सामने आते ही सियासत और समाज दोनों ही हलकों में ज़बरदस्त हलचल मच गई। हर तरफ़ से प्रतिक्रियाएँ आने लगीं और मामला देखते-ही-देखते राष्ट्रीय बहस बन गया। कांग्रेस, आरजेडी और कई दूसरे विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को गंभीर बताते हुए Nitish Kumar से इस्तीफ़े तक की मांग कर दी। विपक्ष का कहना है कि मुख्यमंत्री जैसे ऊँचे पद पर बैठे शख़्स से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं की जाती और उन्हें इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।
बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने भी इस विवाद पर साफ़ राय रखी। उन्होंने कहा कि हालात को संभालने के लिए मुख्यमंत्री को खुद आगे आना चाहिए और खुले तौर पर खेद ज़ाहिर करना चाहिए, ताकि यह मामला और न बढ़े। उनके मुताबिक़, अगर समय रहते संवेदनशीलता दिखाई जाती, तो शायद विवाद इतना बड़ा न बनता।
वहीं जम्मू-कश्मीर के हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस के एक नेता ने इस घटना को शख़्सी इज़्ज़त और नैतिक हदों का गंभीर उल्लंघन बताया। उनका कहना था कि सत्ता का ओहदा चाहे जितना बड़ा क्यों न हो, वह किसी भी महिला के आत्मसम्मान से ऊपर नहीं हो सकता। यह बयान सोशल मीडिया पर काफ़ी चर्चा में रहा और कई लोगों ने इससे सहमति जताई।
इसके अलावा, सैयद शरीफ़ जैसे धर्म-गुरुओं ने भी इस पूरे विवाद पर अपनी बात रखी। उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से शांति, सब्र और समझदारी दिखाने की अपील की। उनका कहना था कि ऐसे मामलों में सख़्त या तंज़ भरी ज़ुबान की जगह संयम और इंसानियत से काम लेना चाहिए, ताकि समाज में नफ़रत या तनाव न फैले।
कुल मिलाकर, इस एक Hijab Row ने देशभर में राजनीतिक तूफ़ान और सामाजिक बेचैनी पैदा कर दी है। हर वर्ग से यही आवाज़ उठ रही है कि नेताओं को अपने आचरण और बयान दोनों में ज़्यादा ज़िम्मेदार होना चाहिए, क्योंकि उनके शब्द और काम सीधे तौर पर समाज पर असर डालते हैं।
समाज और नागरिक स्वर: गरिमा, अधिकार और राजनीति
अब यह बहस सिर्फ़ एक घटना या एक वीडियो तक महदूद नहीं रही, बल्कि पूरे देश का मुद्दा बन चुकी है। आम लोग, सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी खुलकर कह रहे हैं कि महिलाओं की इज़्ज़त और उनके मज़हबी प्रतीकों की हिफ़ाज़त संविधान के दायरे में आने वाले बुनियादी हक़ हैं।
इन अधिकारों के साथ किसी भी हाल में समझौता नहीं किया जा सकता। लोगों का साफ़ कहना है कि चाहे हालात कुछ भी हों, किसी महिला की मर्ज़ी और उसकी आस्था का सम्मान करना हर हाल में ज़रूरी है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह मामला अब एक बड़े सवाल की शक्ल ले चुका है। यह विवाद धार्मिक आज़ादी, निजी फ़ैसले लेने की आज़ादी और सत्ता के इस्तेमाल की हदों पर देशभर में नई बहस छेड़ रहा है। लोग पूछ रहे हैं कि क्या सत्ता में बैठा इंसान इतना ताक़तवर हो जाता है कि वह किसी की निजी ज़िंदगी और मज़हबी पहचान में दख़ल दे सके?
दरअसल, यह विवाद क़ानून, हक़ और अख़लाक़ तीनों को एक साथ कटघरे में खड़ा करता है। सवाल उठ रहे हैं कि
क्या किसी महिला के मज़हबी प्रतीक को चुनौती देना सत्ता के पद का हक़ हो सकता है?
क्या किसी इंसान की गरिमा को सार्वजनिक मंच पर इस तरह ठेस पहुँचाना संविधान की रूह के मुताबिक़ है?
और सबसे अहम बात क्या नेताओं के गैर-ज़िम्मेदार और आपत्तिजनक बयान समाज में बँटवारे और असहिष्णुता को हवा नहीं देते?
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) की सख़्त निंदा और बिना शर्त माफ़ी की मांग इसी बात की तरफ़ इशारा करती है कि मामला मामूली नहीं है। यह एक गंभीर चेतावनी है कि अगर आज इन सवालों को नज़रअंदाज़ किया गया, तो कल इसके नतीजे और ज़्यादा ख़तरनाक हो सकते हैं।
कुल मिलाकर, यह सिर्फ़ एक राजनीतिक विवाद नहीं रह गया है। यह एक बार फिर जनता, संविधान और सत्ता में बैठे नेताओं के बीच ज़िम्मेदारी और जवाबदेही की कड़ी परीक्षा बन चुका है। अब देश देख रहा है कि इस इम्तिहान में लोकतंत्र, इंसाफ़ और इंसानियत का पलड़ा कितना भारी रहता है।
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