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“I Love Muhammad” Conspiracy का पूरा मामला क्या है?
उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर का मामला है। यहाँ कुछ नौजवान मुस्लिम लड़कों ने मोहब्बत और अकी़दत का इज़हार करते हुए सड़क किनारे एक बड़ा-सा बोर्ड और बैनर लगा दिया, जिस पर साफ-साफ लिखा था – I Love Muhammad या “I Love मोहम्मद”। ये बोर्ड सैयद नगर इलाक़े में लगाया गया था, और यह जगह रावतपुर थाने की हद में आती है।

अब हुआ ये कि बोर्ड लगाने के साथ-साथ वहाँ पर एक तंबू और लाइटिंग का इंतज़ाम भी कर दिया गया। ये सब कुछ सीधा सार्वजनिक रास्ते पर था, यानि ऐसी जगह जो आम लोगों की आवाजाही के लिए होती है।
मसला तब उठ खड़ा हुआ जब लोगों ने देखा कि यह बोर्ड उसी दरवाज़े या गेट के क़रीब है, जहाँ से हर साल राम नवमी का जुलूस गुज़रता है। दूसरे मज़हब के लोगों ने इस पर एतराज़ जताया। उनका कहना था कि इस तरह की नई सजावट या बोर्ड अचानक से लगाना आने वाले दिनों में क़ानून-व्यवस्था (law & order) के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है।
असल में डर ये था कि अगर जुलूस गुज़रते वक्त बोर्ड को लेकर किसी भी तरह की बहस या नोकझोंक हो गई, तो छोटे-से मसले से बड़ा तनाव पैदा हो सकता है और सांप्रदायिक माहौल बिगड़ सकता है। इसलिए कुछ लोगों ने इसे “नया रिवाज़” या “नई परंपरा” शुरू करने की कोशिश बताया और आपत्ति दर्ज कराई।
I Love Muhammad Conspiracy पुलिस तहरीर और FIR
9 सितंबर 2025 को कानपुर के रावतपुर थाने में एक शिकायत दर्ज हुई। ये शिकायत थाने के सब-इंस्पेक्टर पंकज शर्मा ने ख़ुद दी। इस शिकायत के आधार पर पुलिस ने एक FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) लिखी।
FIR में कुल 9 लोगों के नाम साफ़-साफ़ दर्ज किए गए, यानि नामज़द किया गया, और इसके अलावा करीब 15 से 17 अज्ञात लोगों को भी इसमें आरोपी बनाया गया। मतलब यह कि कुछ लोग पहचान लिए गए और बाक़ी उन लोगों को भी शक के दायरे में रखा गया, जिनके बारे में पुलिस को अभी पक्की जानकारी नहीं थी।
इल्ज़ाम ये लगाया गया कि इन लोगों ने मिलकर बोर्ड और टेंट लगाने का काम किया। पुलिस का कहना था कि यह कोई साधारण काम नहीं था, बल्कि इसके पीछे एक “नया रिवाज़” शुरू करने की कोशिश की जा रही थी। ऐसा रिवाज़ जो अब तक यहाँ नहीं होता था और जो पहले से चली आ रही परंपराओं से बिल्कुल अलग था। पुलिस और प्रशासन की नज़र में इस हरकत से सांप्रदायिक सौहार्द, यानि मज़हबी हमआहंगी, को नुक़सान पहुँच सकता था और लोगों के बीच फसाद या तनातनी पैदा हो सकती थी।
FIR में कई धाराएँ लगाई गईं| जैसे कि अवैध जमावड़ा (unlawful assembly) करना और सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने की कोशिश करना। ये धाराएँ क़ानून की नज़र में गंभीर मानी जाती हैं, क्योंकि इनका सीधा ताल्लुक़ समाज की अमन-ओ-शांति से होता है।
इस मसले को शांत करने के लिए पुलिस ने इलाके के मुस्लिम धर्मगुरुओं और मौलवियों को बुलाया। उनसे कहा गया कि वे दख़ल दें और लोगों को समझाएँ ताकि मामला और न बढ़े। बातचीत के बाद वहाँ लगाए गए बोर्ड और टेंट को हटा दिया गया, जिससे कि हालात क़ाबू में आ सकें और शांति क़ायम रहे।
लेकिन मामला यहीं ख़त्म नहीं हुआ। इस पूरी कार्रवाई का मुस्लिम समाज के कुछ हिस्सों ने एतराज़ किया। उनका कहना था कि यह मसला लोगों की भावनाओं और अकी़दत से जुड़ा हुआ है। बोर्ड पर I Love Mohammad लिखा था, जो मोहब्बत और इज़्ज़त का इज़हार है, इसमें किसी तरह की नफ़रत या उकसाने वाली बात नहीं थी। ऐसे में सिर्फ़ “क़ानून-व्यवस्था” के नाम पर इस तरह की धार्मिक अभिव्यक्ति पर रोक लगाना सही नहीं है।
कानूनी और संवैधानिक पहलू
असल में ये पूरा Conspiracy सिर्फ़ एक बोर्ड लगाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे कई तरह के संवैधानिक और क़ानूनी सवाल भी उठ खड़े हुए हैं।
सबसे पहले बात करें धार्मिक आज़ादी और अपनी बात कहने की आज़ादी की। भारत का संविधान हर शहरी को ये हक़ देता है कि वो अपने मज़हबी जज़्बात और अकी़दत को खुले तौर पर ज़ाहिर कर सके। इसके लिए संविधान में अनुच्छेद 25 का ज़िक्र आता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसी तरह अनुच्छेद 19 हर शहरी को अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है, यानि आप अपनी सोच, अपनी राय, अपनी मोहब्बत और अपनी श्रद्धा को दूसरों तक पहुँचा सकते हैं।
लेकिन ये भी हक़ बिल्कुल बे-हद (unlimited) नहीं है। संविधान ने साफ़ लिखा है कि इन आज़ादियों पर कुछ पाबंदियाँ भी लगाई जा सकती हैं। जैसे कि अगर किसी की अभिव्यक्ति से क़ानून-व्यवस्था (public order) बिगड़ने का ख़तरा हो, या अख़लाक़ (morality) पर बुरा असर पड़े, या फिर लोगों की सेहत (health) को नुक़सान पहुँचे, तो सरकार या प्रशासन उसमें दख़ल दे सकता है।
अब दूसरी बड़ी बात है — सार्वजनिक जगहें और नियम-क़ायदे। जब भी कोई बोर्ड, बैनर, टेंट या कोई स्ट्रक्चर सड़क या सार्वजनिक रास्ते पर लगाया जाता है, तो उसके लिए अक्सर स्थानीय प्रशासन से बाक़ायदा इजाज़त लेनी पड़ती है। ऐसा इसलिए क्योंकि सड़क और रास्ता सबका है, वहाँ किसी एक समूह की चीज़ लगाने से कभी-कभी दूसरे लोगों को दिक़्क़त या एतराज़ हो सकता है।
इस केस में पुलिस का कहना है कि “I Love Muhammad” वाला बोर्ड और टेंट बिना इजाज़त के लगाया गया था। साथ ही पुलिस ने ये भी तर्क दिया कि यह एक तरह का नया रिवाज़ (new practice) शुरू करने की कोशिश थी, जो पहले से वहाँ नहीं होता था। इसी वजह से उन्होंने इसमें दख़ल दिया और कहा कि अगर आज इसे रोक न गया तो कल को और भी ग्रुप अपने-अपने बैनर और ढाँचे लगाने लगेंगे, जिससे माहौल में तनातनी बढ़ सकती है।
I Love Muhammad Conspiracy पर IPC की धाराएँ
अब ज़रा बात करते हैं उन क़ानूनी धाराओं की, जिनका ज़िक्र I Love Muhammad मामले में किया जा रहा है।
सबसे पहले है धारा 153A (जिसे अब नए कानून में BNS 196 कहा जाता है)। इसका मतलब ये होता है कि अगर कोई शख़्स या ग्रुप ऐसी हरकत करता है जिससे अलग-अलग धर्मों या समुदायों के बीच बैर, नफ़रत या टकराव बढ़े, तो उस पर ये धारा लग सकती है। यानि कोई भी काम, कोई भी बयान, कोई भी नारा या बोर्ड जो लोगों को आपस में भिड़ाए या दिलों में नफ़रत पैदा करे, उसे इस धारा के तहत ग़लत माना जाता है।
दूसरी है धारा 295A (अब BNS 299)। ये उस सूरत में लगाई जाती है जब कोई शख़्स जान-बूझकर किसी मज़हबी अकी़दे या धार्मिक मान्यता को ठेस पहुँचाने की कोशिश करता है। अगर किसी की बात या हरकत से दूसरों की धार्मिक भावनाएँ आहत होती हैं, और वो भी इरादतन (deliberately), तो ये धारा लागू की जा सकती है।
अब असली सवाल ये है कि I Love Muhammad लिखना किस तरह से इन धाराओं में आता है? सीधी-सी बात है कि ये तो एक पॉज़िटिव इज़हार है, मोहब्बत और अकी़दत का बयान है। इसमें किसी मज़हब के ख़िलाफ़ कुछ कहा ही नहीं गया। इस लिहाज़ से देखा जाए तो ये धाराएँ सीधे तौर पर फिट नहीं बैठतीं।
लेकिन मामला यहीं पे थोड़ा पेचीदा हो जाता है, क्योंकि भारत जैसे मुल्क में जहाँ धार्मिक त्योहार, जुलूस और मज़हबी रस्में बहुत ही ज़्यादा अहमियत रखती हैं और बहुत जज़्बाती भी होती हैं, वहाँ पर कोई भी चीज़ अगर पारंपरिक तरीक़े से हटकर कर दी जाए तो उसे लोग “उकसावे” (provocation) के तौर पर भी देख सकते हैं।
यही वजह है कि प्रशासन और पुलिस अक्सर ऐसी चीज़ों को शुरू से ही काबू में रखने की कोशिश करते हैं। उनकी दलील होती है कि अगर छोटे-छोटे मसलों को वक़्त रहते नहीं संभाला गया, तो वो आगे चलकर बड़े सांप्रदायिक झगड़ों में बदल सकते हैं।
सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रश्न
सबसे पहले बात आती है प्रणाली और बराबरी की। अगर किसी एक ग्रुप या बिरादरी को यह कहकर रोका जाए कि तुम्हारा मज़हबी इज़हार (religious expression) से “law and order” बिगड़ सकता है, तो उस ग्रुप को साफ़-साफ़ लगेगा कि उनके साथ नाइंसाफ़ी हो रही है। क्योंकि भाई, जब हर इंसान को अपने मज़हब और अपनी मोहब्बत जताने का बराबर हक़ है, तो फिर सिर्फ़ एक ही बिरादरी को रोकना बराबरी और इंसानी हक़ूक़ (human rights) के ख़िलाफ़ नज़र आता है।
फिर आती है बात क़ुदरती और पारंपरिक रिवाजों की। भारत जैसे मुल्क में जुलूस और धार्मिक आयोजन बहुत पुराने तरीक़ों और तय शुदा रास्तों (routes) पर होते आए हैं। लोग इन रास्तों और तौर-तरीक़ों को अपना हक़ और रिवायत (tradition) मानते हैं। लेकिन जब अचानक कोई नया तरीक़ा आज़मा लिया जाता है—जैसे नई सजावट, नया बोर्ड या नया रास्ता—तो दूसरे समुदाय को ये बात अजीब लगती है, और कई बार सीधा एतराज़ (objection) भी दर्ज कर देते हैं।
तीसरी अहम चीज़ है कम्युनिकेशन और डायलॉग का फ़ुक़दान (कमी)। अक्सर होता ये है कि अलग-अलग मज़हब और बिरादरी के लोग आपस में बैठकर बातें नहीं करते। अगर थोड़ी बातचीत और मध्यस्थी (mediation) हो जाए, तो मामला सुलझ भी सकता है। लेकिन जब फ़ैसले अचानक से लिए जाते हैं, और दूसरे पक्ष को पहले से भनक तक नहीं लगती, तो मामूली सी बात भी बड़ा झगड़ा बन जाती है।
I Love Muhammad Conspiracy आलोचनाएँ और समर्थन
आलोचनाएँ और लोगों की राय
बहुत से लोग इस पूरे मामले को धार्मिक आज़ादी पर रोक मान रहे हैं। उनका कहना है कि I Love Muhammad में ऐसा क्या है जो किसी की भावना को ठेस पहुँचाए? ये तो दरअसल मोहब्बत और अकीदा (श्रद्धा) जताने का एक तरीक़ा है।
अगर कोई शख़्स अपने पैग़म्बर से मोहब्बत का इज़हार करे तो इसमें ग़लत क्या है? आलोचकों का कहना है कि पुलिस का रवैया कहीं न कहीं भेदभाव वाला (biased) लग रहा है, क्योंकि अगर दूसरी तरफ़ किसी और मज़हबी ग्रुप ने ऐसा किया होता, तो शायद इतनी सख़्ती नहीं दिखाई जाती।
“नया रिवाज” वाली बात भी बहुतों को हज़म नहीं हो रही। लोग पूछते हैं कि क्या वाक़ई यह कोई नया रिवाज था या बस स्थानीय नौजवानों का श्रद्धा जताने का एक छोटा-सा तरीक़ा? यानी मामला उतना बड़ा नहीं था, जितना बना दिया गया।
समर्थन और पुलिस का तर्क
दूसरी तरफ़ पुलिस और प्रशासन का कहना है कि उनका काम सिर्फ़ law & order बनाए रखना है। उनका तर्क है कि अगर कोई नया बोर्ड, बैनर या टेंट किसी ऐसे रास्ते पर लगा दिया जाए जहाँ से परंपरागत जुलूस निकलता है, तो वहाँ एतराज़ (objection) होना लाज़मी है। और अगर यह एतराज़ बढ़कर तनाव की शक्ल ले ले, तो मामला हाथ से निकल सकता है।
आगे क्या हो सकता है?
अदालती रास्ता:
अगर ये केस अदालत तक जाता है, तो वहाँ जज को यह देखना होगा कि “I Love Muhammad” लिखना वाक़ई सार्वजनिक शांति में खलल डालता है या यह सिर्फ़ एक शांतिपूर्ण इज़हार-ए-मोहब्बत (expression of love) है। अदालत यह भी तय कर सकती है कि क्या पहले अनुमति लेना ज़रूरी था और क्या इससे दूसरे समुदाय की संवेदनाएँ सचमुच प्रभावित हुईं।
मध्यस्थता और सुलह-सफ़ाई:
लोकल धर्मगुरु, मोहल्ला कमेटी और प्रशासन आपस में बैठकर एक हल निकाल सकते हैं। कोई ऐसा तरीका अपनाया जाए जिससे श्रद्धा की अभिव्यक्ति भी हो और सामाजिक सौहार्द (communal harmony) भी बरकरार रहे।
नीतियाँ और गाइडलाइंस:
सरकार या प्रशासन चाहे तो इस तरह की सिचुएशन्स के लिए साफ़-साफ़ दिशा-निर्देश (guidelines) बना दे। जैसे कि जुलूसों के रास्तों पर क्या-क्या लगाया जा सकता है, बैनर या बोर्ड किस हद तक ठीक हैं, और किस चीज़ के लिए परमिशन अनिवार्य है। इससे आगे जाकर विवादों को रोका जा सकता है।
जागरूकता और डायलॉग:
समाज को यह समझना होगा कि मज़हब के नाम पर श्रद्धा जताना अच्छी बात है, लेकिन अगर यह किसी और को चुभने लगे तो टकराव पैदा हो सकता है। इसीलिए ज़रूरी है कि डायलॉग और समझदारी से काम लिया जाए। मीडिया और सोशल ऑर्गेनाइज़ेशन भी यहाँ अहम रोल निभा सकते हैं, ताकि छोटी-सी बात को आग न लगे।
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