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Google AI Cancer Hypothesis का विज्ञान में उत्कर्ष
Sundar Pichai: कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी Google AI जिसे अब तक हम बस एक “टूल” (उपकरण) की तरह देखते आए हैं। जैसे भाषा का अनुवाद करना, तस्वीर पहचानना, चैटबॉट से सवालों के जवाब लेना, या किसी जटिल डेटा को समझना।

लेकिन अब Google AI सिर्फ डेटा पढ़ने या विश्लेषण करने तक सीमित नहीं रहा अब ये नए वैज्ञानिक विचार (scientific ideas) पैदा करने लगा है। और यही वो मोड़ है, जहाँ इंसान और मशीन के रिश्ते में एक नया अध्याय शुरू होता है।
हाल ही में Google AI टीम ने कुछ ऐसा किया, जिसने पूरी दुनिया के वैज्ञानिक समुदाय को हैरान कर दिया। उन्होंने एक ऐसा मॉडल बनाया C2S-Scale 27B, जो “जीवित कोशिकाओं (living cells)” की भाषा को समझने और व्याख्या करने में सक्षम है।
और सबसे बड़ी बात इस Google AI ने एक नई जैविक परिकल्पना (biological hypothesis) पेश की, जिसे प्रयोगशाला में टेस्ट करके सही साबित किया गया! यानी AI ने न सिर्फ सोचने जैसा काम किया, बल्कि सोच को साबित भी कर दिखाया।
“C2S-Scale 27B” क्या है?
इस नाम को सुनकर लगता है जैसे कोई रॉकेट या साइंस लैब का फॉर्मूला हो, लेकिन असल में यह एक AI मॉडल है, जो सिंगल-सेल डेटा (single-cell data) को समझता है।
हर इंसान के शरीर में करोड़ों-खरबों कोशिकाएँ होती हैं और हर कोशिका की अपनी एक “भाषा” होती है। जैसे कौन-से जीन सक्रिय हैं, कौन-से निष्क्रिय, कौन-सी प्रतिक्रिया कब शुरू होगी।
C2S-Scale 27B इस कोशिकीय भाषा (cellular language) को ऐसे समझता है जैसे कोई AI मॉडल इंसानी भाषा समझता है। यानी अगर किसी कोशिका में कोई गड़बड़ी (जैसे कैंसर) हो रही हो, तो यह मॉडल उस गड़बड़ी के “संकेत” को पकड़ सकता है और यह अंदाज़ा लगा सकता है कि उसके पीछे कौन-सा जैविक कारण या बदलाव है।
Google AI ने क्या खोज की?
Google AI की टीम ने इस मॉडल को लाखों कोशिकाओं के डेटा पर प्रशिक्षित किया। इस दौरान AI ने एक नया कैंसर-से जुड़ा हुआ जैविक पैटर्न खोज निकाला। यानी उसने यह अनुमान लगाया कि कुछ खास जीन एक साथ सक्रिय होकर कैंसर कोशिकाओं की ग्रोथ को बढ़ाते हैं।
पहले तो यह एक “Google AI की कल्पना” जैसी बात लगी। लेकिन जब वैज्ञानिकों ने इस पर लैब में प्रयोग (lab experiments) किए, तो पाया कि Google AI का अनुमान पूरी तरह सही था|इसका मतलब अब Google AI सिर्फ इंसानों की मदद नहीं कर रहा, बल्कि खुद वैज्ञानिक खोजों में साझेदार बन गया है।
प्रयोगशाला में पुष्टि“AI की सोच ने काम किया!”
Google की बायोसाइंस टीम ने जब इस AI द्वारा सुझाए गए हाइपोथिसिस को प्रयोगशाला में टेस्ट किया, तो उन्होंने पाया कि AI ने जो जीन इंटरैक्शन बताया था, वह वास्तव में कोशिकाओं के भीतर वैसा ही काम कर रहा था जैसा मॉडल ने अनुमान लगाया था।
यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी क्योंकि आम तौर पर एक जैविक हाइपोथिसिस (biological hypothesis) तैयार करने और उसे प्रयोग से सत्यापित करने में महीनों या सालों का वक्त लगता है। लेकिन यहाँ AI ने यह काम कुछ ही हफ्तों में कर दिखाया।
C2S-Scale 27B: AI मॉडल की पृष्ठभूमि और कार्यपद्धति
अब ज़रा समझिए कि ये C2S-Scale 27B मॉडल, जिसे Cell2Sentence-Scale मॉडल भी कहा जाता है, असल में करता क्या है। ये कोई आम AI नहीं, बल्कि Google के “Gemma open models” सीरीज़ पर आधारित एक बहुत बड़ा और उन्नत Google AI मॉडल है। इसे खास तौर पर इस तरह बनाया गया है कि ये कोशिकाओं (cells) की भाषा को “पढ़” और “समझ” सके जैसे कोई भाषा मॉडल इंसानी शब्दों को समझता है।
यहाँ “भाषा (language)” से मतलब असल शब्दों से नहीं, बल्कि कोशिका के अंदर होने वाले संकेतों, जीन एक्सप्रेशन (gene expression), प्रोटीन सिग्नलिंग (signaling pathways) और बाकी जटिल जैविक डेटा से है। यानि, यह मॉडल कोशिकाओं के अंदर चल रही बातचीत को ऐसे पढ़ता है जैसे कोई इंसान किताब पढ़ रहा हो।
मॉडल का असली मकसद
इस मॉडल का असली उद्देश्य था ऐसे ड्रग (दवाइयाँ) ढूँढना जो इम्यून सिस्टम (immune system) के हिसाब से काम करें। यानि, ऐसे ड्रग जो शरीर में तब असर दिखाएँ जब इम्यून सिग्नल (immune signaling) मौजूद हों लेकिन कमजोर हों और उन जगहों पर असर न करें जहाँ इम्यून सिस्टम बिल्कुल सामान्य या बहुत एक्टिव है। इसे ही कहा गया “immune-context-aware drug discovery”, यानी दवा जो अपने माहौल को पहचानकर असर करे।
कैसे काम करता है ये मॉडल
Google की टीम ने इसके लिए एक dual-context virtual screening model तैयार किया मतलब, एक साथ दो अलग संदर्भों में दवाओं की जाँच।
Immune-Context-Positive: इसमें ऐसे मरीजों के ऊतक (tissue samples) लिए गए जिनमें इम्यून सिग्नल्स अभी भी मौजूद थे यानी शरीर की रक्षा प्रणाली काम तो कर रही थी, लेकिन पूरी ताकत से नहीं।
Immune-Context-Neutral: इसमें ऐसे cell lines (प्रयोगशाला में उगाई गई कोशिकाएँ) ली गईं जिनमें कोई इम्यून संकेत नहीं थे यानी बिल्कुल “neutral” माहौल।
अब इस मॉडल ने इन दोनों स्थितियों में करीब 4,000 से ज़्यादा दवा उम्मीदवारों (drug candidates) को परखा। AI ने यह विश्लेषण किया कि कौन-सी दवा उस संदर्भ में “एंटिजन प्रेज़ेंटेशन (antigen presentation)” यानी शरीर की इम्यून कोशिकाओं को खतरे की पहचान कराने की प्रक्रिया को ज़्यादा मज़बूत कर सकती है।
AI की खोज Silmitasertib
इस जांच के दौरान मॉडल ने एक बहुत दिलचस्प दवा की पहचान की Silmitasertib (CX-4945), जो एक CK2 इनहिबिटर है। मॉडल ने यह “अनुमान” लगाया कि यह दवा उन कोशिकाओं में एंटिजन प्रेज़ेंटेशन बढ़ाएगी जहाँ इम्यून सिग्नल पहले से थोड़े-बहुत मौजूद हैं (Immune-Positive context), लेकिन जिन कोशिकाओं में इम्यून सिग्नल बिल्कुल नहीं हैं (Neutral context), वहाँ इसका कोई खास असर नहीं होगा।
यानि, यह दवा बहुत “targeted” तरीके से काम कर सकती है सही जगह पर असर करे, और गलत जगह नुकसान न पहुँचाए।
“सोचने वाली मशीन” नई परिकल्पना की शुरुआत
यहाँ सबसे बड़ी बात यह थी कि Google AI ने ये सब पहले से मौजूद जानकारी पर आधारित होकर नहीं कहा। उसने अपने डेटा विश्लेषण से एक “नई सोच (novel hypothesis)” दी एक ऐसा विचार जो इंसान वैज्ञानिकों ने पहले नहीं सोचा था। यानि, यह Google AI अब सिर्फ पुराने तथ्यों को दोहराने वाला नहीं रहा, बल्कि नए वैज्ञानिक विचार देने वाला बन गया है।
मतलब साफ़ है अब AI सिर्फ “डिजिटल असिस्टेंट” नहीं बल्कि एक नया वैज्ञानिक साथी बन चुका है। जो डेटा के समुद्र में से न सिर्फ जवाब ढूंढता है, बल्कि नए सवाल उठाता है और उनके पीछे छिपी सच्चाई तक पहुँचता है।
प्रयोगशाला सत्यापन: Google AI विचार से प्रयोग तक
जब कोई वैज्ञानिक खोज सिर्फ़ कंप्यूटर या डेटा की बात न रह जाए, बल्कि असल लैब में, जिंदा कोशिकाओं (living cells) में सच साबित हो जाए तो वो पल वाकई इतिहास में दर्ज होने लायक होता है।
Google और Yale यूनिवर्सिटी की शोध टीमों ने ऐसा ही कुछ कर दिखाया। उन्होंने इस AI द्वारा बनाए गए विचार (AI-generated hypothesis) को मानव न्यूरोएंडोक्राइन कोशिकाओं (neuroendocrine cells) पर आज़माया और नतीजे इतने सटीक निकले कि वैज्ञानिक खुद हैरान रह गए।
प्रयोग की शुरुआत
AI मॉडल ने भविष्यवाणी की थी कि अगर Silmitasertib (जो एक CK2 inhibitor है) को कम मात्रा के इंटरफेरॉन (low-dose interferon) के साथ मिलाकर दिया जाए,
तो एंटिजन प्रस्तुति (antigen presentation) में भारी सुधार देखा जाएगा|
यानि शरीर की immune system को कैंसर कोशिकाओं की पहचान करने में ज़्यादा मदद मिलेगी। क्या ये सिर्फ़ एक मशीन का अंदाज़ा है, या इसके पीछे कोई असली वैज्ञानिक सच्चाई है? फिर हुई प्रयोगशाला में जाँच Yale और Google की टीम ने तीन अलग-अलग सेटअप तैयार किए:
सिर्फ़ Silmitasertib
सिर्फ़ Low-dose Interferon
Silmitasertib + Low-dose Interferon (संयोजन)
तीनों स्थितियों में कोशिकाओं पर एंटिजन प्रस्तुति (यानी शरीर की रोग पहचानने की क्षमता) को मापा गया।
नतीजे जो चौंका गए
जब सिर्फ़ Silmitasertib दी गई, तो कोशिकाओं में कोई खास बदलाव नहीं हुआ। यानी अकेले ये दवा ज़्यादा असरदार नहीं थी। जब सिर्फ़ Interferon (कम मात्रा में) दिया गया, तो थोड़ा बहुत असर दिखा, लेकिन कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ा।
लेकिन जब दोनों को मिलाकर दिया गया, तो एंटिजन प्रस्तुति लगभग 50% तक बढ़ गई! यानी शरीर की “कैंसर पहचानने” की क्षमता दोगुनी हो गई। यह बिल्कुल वही था जो AI मॉडल ने पहले से अनुमान लगाया था।
Sundar Pichai की घोषणा और प्रतिक्रिया
अब बात करते हैं उस हिस्से की, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया जब Google के CEO सुंदर पिचाई ने खुद इस खोज को सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म X (जो पहले Twitter था) पर साझा किया।
उन्होंने लिखा “An exciting milestone for AI in science: हमारा C2S-Scale 27B foundation model … कैंसर की कोशिकाओं के व्यवहार पर एक नया वैज्ञानिक विचार (novel hypothesis) लेकर आया, जिसे वैज्ञानिकों ने जीवित कोशिकाओं (living cells) में प्रयोग करके सच साबित किया।”
यानि, ये कोई कल्पना नहीं थी Google AI ने जो सोचा, उसे इंसानों ने लैब में टेस्ट किया, और वो सही निकला। सुंदर पिचाई ने आगे यह भी कहा कि अब pre-clinical (यानी शुरुआती प्रयोगशाला जाँच) और clinical trials (मरीजों पर जाँच) के ज़रिए इस खोज को आगे बढ़ाया जाएगा, ताकि यह कैंसर के इलाज में एक नई दिशा दे सके।
दुनिया भर में छा गई चर्चा
जैसे ही यह खबर आई, दुनिया भर के वैज्ञानिक जर्नल्स, मीडिया प्लेटफॉर्म्स और रिसर्च फोरम्स पर चर्चा शुरू हो गई। हर कोई यही कह रहा था “यह सिर्फ एक खोज नहीं, बल्कि विज्ञान में AI का मील का पत्थर (milestone) है।”
क्यों है यह सफलता इतनी बड़ी?
देखिए, यह घटना सिर्फ एक प्रयोग या शोध नहीं थी। इसने यह साबित किया कि AI अब सिर्फ सहायक (assistant) नहीं रहा, बल्कि विचार देने वाला, सोचने वाला एक साथी बन गया है। इस खोज के कई गहरे मायने हैं|
AI से वैज्ञानिक रचनात्मकता (Creativity in Science)
पहले तक AI को एक डेटा विश्लेषक या गणना करने वाली मशीन माना जाता था। लेकिन यहाँ AI ने खुद से नया विचार (new idea) तैयार किया वो भी ऐसा विचार जो इंसान वैज्ञानिकों ने पहले नहीं सोचा था।
इसका मतलब ये हुआ कि अब AI के पास “emergent capabilities” हैं यानि ऐसी क्षमताएँ जो उसे प्रोग्राम नहीं की गईं, लेकिन उसने खुद सीख लीं जैसे इंसान अपने तजुर्बे से सीखता है।
वर्चुअल लैब का जन्म (Rise of Virtual Labs)
अब AI सिर्फ लैपटॉप या सर्वर पर बैठा नहीं रहेगा ये अपने आप में एक virtual lab (वर्चुअल प्रयोगशाला) बन चुका है। पहले वैज्ञानिकों को हज़ारों ड्रग्स पर महीनों तक प्रयोग करने पड़ते थे, अब AI वही काम कुछ ही घंटों में कर सकता है।
ये हज़ारों दवा नमूनों (drug candidates) को वर्चुअली टेस्ट करता है, और बताता है कि कौन-सी दवा सबसे कारगर हो सकती है। इससे समय, पैसे और रिसोर्सेज तीनों की भारी बचत होती है। यानी, रिसर्च अब तेज़, सस्ती और सटीक हो रही है।
कैंसर रिसर्च को नई रफ़्तार (Boost to Cancer Research)
कैंसर के कई टाइप ऐसे होते हैं जिन्हें “cold tumors” कहा जाता है यानि जिनमें शरीर की immune response बहुत कम होती है। ऐसे ट्यूमर को मारना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि शरीर खुद उन्हें पहचान नहीं पाता।
अब Google के इस AI मॉडल ने दिखाया कि कैसे एक खास दवा immune signals को बढ़ाकर इन “cold tumors” को “hot” tumors में बदल सकती है यानि शरीर की रक्षा प्रणाली (immune system) उन्हें पहचान सके और उनसे लड़ सके।
AI अब कैंसर की दवा “सोच” भी रहा है, और “डिज़ाइन” भी कर रहा है।
AI और खुला विज्ञान (AI & Open Science)
Google ने यह भी कहा है कि वह C2S-Scale मॉडल और इसके संबंधित resources दुनिया के अन्य वैज्ञानिकों के लिए open-source (खुला स्रोत) करेगा।
इसका मतलब अब दुनिया भर के शोधकर्ता इस मॉडल का इस्तेमाल कर पाएँगे, अपनी खुद की बीमारियों, कोशिकाओं या दवाओं पर प्रयोग कर पाएँगे। यह “Open Science Movement” को और मज़बूत करेगा| जहाँ ज्ञान सिर्फ कुछ कंपनियों तक सीमित न रहकर पूरी मानवता के लिए उपलब्ध हो।
भरोसा और जिम्मेदारी (Trust & Responsibility)
लेकिन जहाँ उम्मीदें हैं, वहाँ सवाल भी हैं। ऐसे प्रयोगों से AI पर भरोसा तो बढ़ता है, पर साथ में नैतिकता (ethics), सुरक्षा (safety) और डेटा की सटीकता जैसे सवाल भी उठते हैं।
क्या हर बार AI के निष्कर्ष सही होंगे?
अगर गलत हुआ, तो ज़िम्मेदारी किसकी होगी इंसान की या मशीन की? इसीलिए, वैज्ञानिक मानते हैं कि AI को विज्ञान में इस्तेमाल करते वक्त सावधानी, पारदर्शिता और मानवीय निगरानी (human oversight) बेहद ज़रूरी है।
चुनौतियाँ और सावधानी बिंदु
अब बात करते हैं इस AI मॉडल की कमज़ोरियों और सीमाओं की क्योंकि जहाँ ताक़त होती है, वहीं कुछ खतरे और चुनौतियाँ भी छिपी होती हैं। Google का ये C2S-Scale 27B मॉडल भले ही बेहद उन्नत और बुद्धिमान है, लेकिन यह हर बार सही साबित हो, ये ज़रूरी नहीं।
AI द्वारा जो “नया विचार” या hypothesis दिया जाता है, वो हमेशा प्रयोगशाला (lab) में सच साबित नहीं होता। कई बार मॉडल किसी पैटर्न या संकेत को ग़लत समझ लेता है,
और जो वो “सच” मानता है, वो असलियत में सिर्फ़ डेटा का भ्रम (illusion) निकलता है। यानि, मशीन की सोच में भी गलती की गुंजाइश रहती है। वैज्ञानिकों को उसके हर विचार को जाँच, दोबारा परखने और संदेह के साथ देखने की ज़रूरत होती है।
डेटा की गुणवत्ता और पक्षपात (Bias)
AI वही सीखता है जो उसे सिखाया जाता है। अगर उसे मिला डेटा अधूरा है, या किसी ख़ास दिशा में झुका हुआ है, तो उसके नतीजे भी उसी bias (पूर्वाग्रह) से प्रभावित होंगे।उदाहरण के तौर पर – अगर मॉडल को ज़्यादातर यूरोपीय जनसंख्या का सेल डेटा दिया गया हो, तो उसके नतीजे भारतीय या अफ़्रीकी मरीजों के लिए सही नहीं ठहरेंगे।
इसलिए, डेटा में संतुलन, विविधता और पारदर्शिता बहुत ज़रूरी है। जीवित शरीर की जटिलता (Complexity of Living Systems) AI ने भले ही single-cell level पर बहुत कुछ समझ लिया हो, लेकिन इंसान का शरीर उससे कहीं ज़्यादा जटिल है।
जो असर एक कोशिका पर दिखता है, वो पूरे शरीर (in vivo) में बिल्कुल अलग परिणाम दे सकता है। यानी, जो दवा लैब में असरदार लगती है, वो असल मरीज पर काम न भी करे, या उल्टा नुकसान पहुँचा दे। इसलिए, हर प्रयोगशाला सफलता को शरीर के स्तर पर समझना बेहद ज़रूरी है।
लैब से क्लिनिक तक का सफर (Lab to Clinic Translation)
कई बार AI कोई शानदार दवा खोज लेता है, लेकिन उसे clinical success तक पहुँचाना आसान नहीं होता। क्लिनिकल ट्रायल्स में दवा की सुरक्षा (safety) साइड इफेक्ट्स और ज़हरपन (toxicity) की गहरी जाँच करनी पड़ती है।
कई बार वो दवाएँ जो लैब में काम करती हैं, वो इंसान के शरीर में जाकर फेल हो जाती हैं। इसलिए, AI की खोज को मानव उपयोग तक पहुँचने में कई कानूनी, चिकित्सीय और नैतिक मंज़िलों से गुज़रना पड़ता है।
नैतिकता और गोपनीयता (Ethics & Privacy)
AI के प्रयोग में सबसे बड़ा सवाल आता है मानव डेटा का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है? जब किसी का जीनोम (genome) या स्वास्थ्य डेटा प्रयोग में आता है, तो उसके साथ जुड़ी होती है गोपनीयता (privacy) और अनुमति (consent) की ज़िम्मेदारी।
अगर यह डेटा बिना अनुमति या पारदर्शिता के इस्तेमाल किया जाए, तो यह न सिर्फ़ कानूनी उल्लंघन होगा, बल्कि मानव अधिकारों और बराबरी (equity) पर भी सवाल उठेगा। इसलिए, विज्ञान के साथ-साथ नैतिकता और ईमानदारी की भी उतनी ही अहमियत है।
भरोसे के साथ होशियारी
AI की यह खोज इंसानियत के लिए एक बड़ा कदम है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मशीन इंसान की जगह नहीं ले सकती, वो बस इंसान की मदद कर सकती है। AI की ताक़त तब ही मायने रखती है, जब उसके साथ मानव दिमाग, संवेदना और समझदारी भी हो। जैसा एक वैज्ञानिक ने बहुत खूबसूरती से कहा “AI हमें रास्ता दिखा सकता है, लेकिन उस रास्ते पर चलने का हौसला अभी भी इंसान को ही रखना होगा।”
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