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G20 Summit 2025: Global Power Shift! दक्षिण ने दिखाई Unity, America को मिला Strong Signal

G20 Summit 2025: Global Power Shift! दक्षिण ने दिखाई Unity, America को मिला Strong Signal

G20 Summit 2025: अमेरिका को चुनौती, अफ्रीका में मंच बदलने की दिशा

दुनिया की सियासत में इस हफ्ते जो सबसे ज़्यादा गूँज रही ख़बर है, वो है 2025 की G20 Johannesburg Summit की। ये समिट इसलिए भी ख़ास है क्योंकि पहली बार G20 Summit 2025 की बैठक अफ्रीका के दिल Johannesburg, South Africa में रखी गई।

इस समिट ने सिर्फ़ इकोनॉमिक प्लान या फाइनेंशियल बातें नहीं कीं, बल्कि इसने एक मज़बूत और साफ़-सा मैसेज भी दिया खास तौर पर Donald Trump की अगुवाई वाले अमेरिका को।

कई लोग इस G20 Summit 2025 को ऐतिहासिक बता रहे हैं, क्योंकि पहली बार अफ्रीका को वो हवाले और इज़्ज़त मिली, जिस पर वो सालों से दावेदार था। इस बड़े आयोजन की मेज़बानी खुद दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति Cyril Ramaphosa ने की।

लेकिन मज़ेदार बात ये है कि ये समिट शुरू होने से पहले ही माहौल गर्म हो चुका था। वजह? अमेरिका का ड्रामा। अमेरिकी सरकार ने इस पूरी बैठक का बायकॉट कर दिया और स्टेटमेंट देते हुए कहा कि वो इस मीटिंग का हिस्सा नहीं बनेंगे।

अमेरिका ने इल्ज़ाम लगाया कि South Africa में “white farmers यानी श्वेत किसानों के साथ ज़ुल्म और भेदभाव” हो रहा है। लेकिन South Africa ने साफ और सख़्त लहज़े में कहा “ये बातें बेबुनियाद हैं और हक़ीक़त से दूर हैं।”

यानी ज़्यादा सीधी भाषा में कहें तो South Africa ने अमेरिका को ये महसूस करा दिया कि अब दुनिया में हर फैसला उसकी मर्ज़ी से नहीं होगा। ये सब देखकर ऐसा लगा जैसे G20 Summit 2025 सिर्फ़ एक समिट नहीं थी, बल्कि एक पावर गेम, एक स्टेटमेंट, और एक नई दुनिया की राजनीति का शुरुआती अंदाज़ था।

G20 Summit 2025: ब्लॉक ने परंपराओं को तोड़ा

आम तौर पर G20 Summit की मीटिंग में ऐसा होता है कि आख़िर में यानी समापन के वक़्त, सारे लीडर्स मिलकर एक Final Declaration पर सहमति जताते हैं। यही परंपरा रही है पहले बातें, फिर बहस, फिर सहमति।

लेकिन इस बार साउथ अफ्रीका ने खेल ही बदल दिया। इस बार उन्होंने शुरुआत में ही घोषणा को मंज़ूरी दे दी वो भी अमेरिका के बिना। अब ये सिर्फ कोई टेक्निकल या फॉर्मल बदलाव नहीं था, बल्कि एक बड़ा और सीधा संदेश था कि दुनियाभर के बाकी देश अब अमेरिका के दबाव में झुकने वाले नहीं हैं।

इस कदम से ऐसा महसूस हुआ जैसे साउथ अफ्रीका और बाकी देश कहना चाह रहे हों: “दुनिया की सियासत अब सिर्फ वॉशिंगटन के इशारों पर नहीं चलेगी। अब हमारी भी आवाज़ है और ये आवाज़ दबेगी नहीं, बल्कि गूंजेगी।”

इस पूरे फैसले ने एक बात बहुत साफ़ कर दी अब लीडरशिप की कुर्सी पर सिर्फ अमेरिका नहीं बैठा है। अब दुनिया में एक नया ब्लॉक, एक नई ताक़त उभर रही है जिसे लोग Global South या सरल भाषा में “दक्षिणी दुनिया की आवाज़” कह रहे हैं।

ये वही देश हैं जो पहले हमेशा कहा करते थे: “Rules अमेरिका बनाता है और बाकी दुनिया पालन करती है।” लेकिन इस बार उन्होंने दिखा दिया कि अब वो सिर्फ सुनने वाले नहीं बल्कि बोलने, निर्णय लेने और दिशा तय करने वाले भी बन रहे हैं।

यानी ये G20 Summit सिर्फ मीटिंग नहीं थी, बल्कि एक नया दौर शुरू होने का इशारा थी जहाँ ताक़त अब बराबरी पर बाँटी जाएगी, और सिर्फ एक सुपरपावर की मर्ज़ी दुनिया की किस्मत तय नहीं करेगी।

समिट का एजेंडा: दक्षिण की प्राथमिकताएँ

इस G20 Summit में अमेरिका ने हिस्सा नहीं लिया और उसने साफ़-साफ़ बोल दिया कि वो इस बैठक में शामिल नहीं होगा। व्हाइट हाउस की तरफ़ से बयान आया कि अमेरिका इस बार चर्चाओं और आधिकारिक बातचीत का हिस्सा नहीं बनेगा। लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती असल ट्विस्ट तो उसके बाद आया।

दक्षिण अफ्रीका ने दावा किया कि अमेरिका ने आख़िरी वक़्त में मन बदल लिया था और कहना शुरू किया कि वो शामिल होना चाहता है, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। दक्षिण अफ्रीका ने कहा कि अमेरिका की शर्तें और उसका प्रस्ताव “अधूरा और अस्पष्ट” था, इसलिए उसे स्वीकार नहीं किया गया।

अब जवाब में अमेरिका ने भी चुप रहने वालों में से नहीं था उन्होंने बयान देकर कहा कि उन्हें ठीक से निमंत्रण दिया ही नहीं गया और आरोप लगाया कि दक्षिण अफ्रीका जानबूझकर बातचीत से बच रहा था।

यानी सीधी भाषा में कहा जाए तो ये मामला सिर्फ़ राजनीति नहीं बल्कि अहंकार, ताक़त और इगो गेम था। इस पूरे वाक़ये से दुनिया ने साफ़ देखा कि अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के बीच तनाव, चालाकी और पावर की टकराहट खुलकर सामने आ गई है।

अब बात करते हैं उस एजेंडा की जो दक्षिण अफ्रीका लेकर आया था और जिसने पूरी मीटिंग का टोन सेट किया। इस बार समिट का फ़ोकस सिर्फ़ बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर नहीं बल्कि उन देशों पर था जो सालों से संघर्ष कर रहे हैं।

दक्षिण अफ्रीका ने अपनी अध्यक्षता में ये मुद्दे रखे:

विकासशील देशों पर बढ़ते क़र्ज़ (Debt Crisis) कई अफ्रीकी, एशियाई और छोटे देशों की अर्थव्यवस्थाएँ कर्ज़ के बोझ में दब रही हैं। इस क़र्ज़ के कारण उनकी ग्रोथ रुक जाती है और उनकी नीतियाँ वहीं फंसकर रह जाती हैं। दक्षिण अफ्रीका चाहता था कि इस सिस्टम को बदला जाए और कर्ज़ देने के नियम नरम किए जाएँ।

जलवायु परिवर्तन और हरित ऊर्जा ट्रांज़िशन

उन्होंने कहा कि क्लाइमेट चेंज का असर अमीर देशों से ज़्यादा गरीब और ट्रॉपिकल देशों पर पड़ रहा है इसलिए ज़िम्मेदारी, फंडिंग और टेक्नोलॉजी भी शेयर होनी चाहिए।यानी “जलवायु बचाने का बोझ सिर्फ़ गरीब देशों पर क्यों पड़े?”

प्राकृतिक संसाधनों का न्यायपूर्ण इस्तेमाल

साउथ अफ्रीका ने कहा कि जो देश critical minerals यानी लिथियम, कोबाल्ट, कॉपर, प्लेटिनम जैसे धातु पैदा करते हैं उन्हें सिर्फ़ कच्चा माल बेचने वाला बाज़ार ना समझा जाए, बल्कि उन्हें टेक्नोलॉजी, मुनाफ़े और फैसलों में हिस्सा मिले।

वैश्विक असमानताओं को कम करना

ये मुद्दा सबसे बड़ा था दुनिया सदियों से North (अमीर देश) और South (विकासशील देश) में बंटी हुई है। और पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि Global South अपनी आवाज़ सिर्फ़ रख नहीं रहा बल्कि थोड़ा सख़्त होकर रख रहा है। इन सब बातों पर अमेरिका की नीतियाँ अक्सर अलग रही हैं, क्योंकि अमेरिका की दिलचस्पी हमेशा उस सिस्टम को बनाए रखने में रहती है जिसमें उसकी शक्ति बनी रहे।

वहीं दूसरी तरफ़ दक्षिण अफ्रीका और कई अन्य देशों ने ये सिद्ध करने की कोशिश की कि अब वक्त बदल रहा है अब दुनिया एकतरफ़ा फैसलों से नहीं बल्कि साझेदारी की नीति से चलेगी।

क्यों यह अमेरिका के लिए संदेश है?

ये पूरी G20 Summit 2025 ने दुनिया को सीधी-साफ़ ज़ुबान में एक मैसेज दे दिया “अब खेल बदल चुका है।” और सबसे ज़्यादा असर ये बात अमेरिका और खासकर Donald Trump की पॉलिसी पर पड़ा है। क्यूँकि इस बार जो हुआ, वो ना सिर्फ अनोखा था बल्कि बहुत हद तक symbolic भी था मतलब इशारा था कि अब दुनिया सिर्फ एक ताक़त के इर्द-गिर्द नहीं घूमेगी।

Global Politics ka Scene बदला और इस बार टेबल पर “Global South” था| ये G20 Summit 2025 अपने आप में ऐतिहासिक इसलिए थी क्योंकि पहली बार G20 Summit 2025 अफ़्रीकी ज़मीन पर हुई। South Africa के राष्ट्रपति Cyril Ramaphosa ने पूरी कॉन्फ़िडेंस के साथ इसे होस्ट किया और इस बार tone बिल्कुल अलग थी।

मतलब पहले जैसे होता था कि बड़ी-बड़ी ताक़तों की बात सुनी जाए और बाकी देश “हाँ” में “हाँ” मिला दें अब वो सिस्टम पुराना पड़ रहा है।

America ki अनुपस्थिति ने सबको सोचने पर मजबूर किया

अमेरिका ने इस समिट में हिस्सा ही नहीं लिया और ये बात सिर्फ absence नहीं थी, ये एक statement थी। लेकिन twist ये है कि South Africa ने दावा किया कि: अमेरिका ने आखिरी वक़्त पर शामिल होने की कोशिश की लेकिन उन्हें reject कर दिया गया क्योंकि उनका प्रस्ताव पूरा नहीं था या “ईमानदार कोशिश” नहीं मानी गई।

वहीं, व्हाइट हाउस ने जवाब में कहा कि उन्हें ठीक से invite ही नहीं किया गया। इस चतुराई और इगो-वार से साफ़ दिखा कि अब global मंच पर power balance टेढ़ा हो रहा है। सबसे बड़ा shock: Declaration पहले ही पास कर दी गई और US शामिल नहीं था |

G20 की परंपरा है कि declaration (मतलब leaders की final joint statement) आख़िर में sign होती है। लेकिन इस बार South Africa ने: पहले ही घोषणा पास कर दी बिना US के बिना उसके दबाव के ये एक सीधी, bold और almost cinematic चाल थी। इससे message गया: “दुनिया decisions लेने के लिए अब अमेरिका की मंजूरी की मोहताज नहीं है।”

Agenda भी US ke विरोध में गया

South Africa और बाकी developing देशों ने जिन मुद्दों को आगे रखा, वो वो बातें थीं जिन पर अमेरिका हमेशा हिचकिचाता रहा है: गरीब और developing देशों पर कर्ज़ का दबाव, जलवायु परिवर्तन की असमान जिम्मेदारी, Critical minerals का न्यायपूर्ण बंटवारा, Green Energy Transition के लिए Global Funding ये सारे मुद्दे Global South की आवाज़ थे और अब वो whisper नहीं, बल्कि माइक पर तेज़ volume में आ रही हैं।

भारत कहाँ खड़ा है इस गेम में?

भारत इस कहानी का बहुत important हिस्सा है। क्योंकि India: खुद भी developing देशों की आवाज़ बनने की कोशिश में है BRICS और G20 दोनों में वज़न बढ़ा चुका है और US तथा South दोनों के साथ संतुलन बनाकर चल रहा है

India के लिए ये Summit एक golden मौका है: कि वो अपनी development journey को दुनिया के सामने और strongly पेश करे climate finance में अपनी शर्तें रख सके और multipolar world में leadership ग्रुप का हिस्सा बने

Final Message jo दुनिया तक पहुंचा: इस समिट ने एक ज़ोरदार और almost poetic message दिया: “अब Global Politics में सिर्फ America की नहीं बल्कि Global South की भी आवाज़ सुनी जाएगी।” और ये सिर्फ एक diplomatic win नहीं बल्कि power shift का संकेत है।

ये G20 Summit सिर्फ एक मीटिंग नहीं थी — ये दुनिया के नए power equation की घोषणा थी। दुनिया अब एक जगह से नहीं चलेगी, बल्कि कई आवाज़ों के साथ चलेगी। और इस बार tone western नहीं, inclusive और balanced थी। Trump चाहे मानें या ना मानें लेकिन अब दुनिया की direction बदल रही है।

G20 Summit के बाद आगे की चुनौतियाँ

लेकिन हाँ… ये भी सच है कि अभी रास्ता इतना आसान नहीं है। जैसे-जैसे अब बात आगे बढ़ रही है, वहीं कुछ बड़ी चुनौतियाँ भी सामने आ रही हैं। अगली बारी अमेरिका की और असली टेस्ट भी वहीं होगा अगले साल यानी 2026 में G20 की अध्यक्षता अमेरिका के हाथ में होगी। अब सबके मन में एक ही सवाल है:

क्या अमेरिका इस बार खुद rule-maker बनेगा या rule-breaker? क्या वो global south की इस नई आवाज़ को अपनाएगा या फिर अपनी पुरानी दबंग स्टाइल में चलेगा? ये देखना काफी दिलचस्प होगा, क्योंकि ये G20 की दिशा तय करेगा — आगे टकराव बढ़ेगा या तालमेल।

South Africa की अपनी चुनौतियाँ भी कम नहीं

South Africa ने इस समिट में बड़ा कदम तो उठाया, लेकिन उसके अपने घर के अंदर भी कई मुद्दे हैं: गरीबी और आय की असमानता, Gender based violence, बेरोज़गारी, सामाजिक विभाजन, इन चीज़ों को लेकर दुनिया कह रही है: “Global leadership अच्छा है, लेकिन घर भी संभालना पड़ेगा।” ये सवाल ये भी उठाता है कि कहीं Global South leadership सिर्फ symbolic न रह जाए।

अब असली बात लागू करने की है — सिर्फ घोषणाएँ काफी नहीं Declaration पास करना एक बात है, लेकिन असली ताक़त है: policies को लागू करने में फंडिंग को सही दिशा देने में और गरीब देशों तक फैसलों का फायदा पहुँचाने में

अगर ये सबground पर नहीं हुआतो ये Summit सिर्फ एक बड़ी स्पीच बनकर रह जाएगी। 2025 की यह समिट सिर्फ मीटिंग नहीं थी यह संकेत थी इस साल की G20 Johannesburg Summit ने एक बड़ा signal

पूरी दुनिया को दिया: अब decisions सिर्फ Washington, London और Brussels में नहीं होंगे। अब Delhi, Pretoria, Brasília, Jakarta और Nairobi की आवाज़ भी बराबर में सुनी जाएगी। अब गेम Single-Power World से निकलकर Multi-Power World में पहुँच चुका है। ये Summit एक turning point जैसा महसूस हुआ। जहाँ Global South ने पहली बार एकजुट होकर कहा: “हम follower नहीं, अब partner हैं।”

अब देखना ये है कि आने वाले सालों में ये बदलाव: असली बदलाव बनेगा या फिर सिर्फ diplomacy की किताबों तक सीमित रह जाएगा। क्योंकि असली फैसला समय करेगा।

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