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क्या मुस्लिम भी शामिल हो सकते हैं (RSS) Rashtriya Swayamsevak Sangh में? Mohan Bhagwat ने दिया Powerful जवाब, जाने इसका Socio-political significance!

क्या मुस्लिम भी शामिल हो सकते हैं (RSS) Rashtriya Swayamsevak Sangh में? Mohan Bhagwat ने दिया Powerful जवाब, जाने इसका Socio-political significance!

Mohan Bhagwat का बयान – क्या कहा गया?

भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का नाम तो हर कोई जानता है ये संगठन हमेशा से देश की राजनीति, समाज और विचारधारा के बीच एक अहम रोल निभाता आया है। इसकी सोच, इसका तरीका और लोगों तक पहुँचने का अंदाज़ अक्सर चर्चा का विषय बना रहता है।

हाल ही में मोहन भागवत ने एक बयान दिया जिसने सोशल और न्यूज़ सर्कल्स में काफ़ी हलचल मचा दी। उन्होंने साफ़ कहा कि मुसलमान और दूसरे मज़हब के लोग भी RSS में शामिल हो सकते हैं, लेकिन इसके साथ कुछ शर्तें भी होंगी।

अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो शर्तें क्या हैं? तो भागवत जी ने बताया “संघ में हर वो इंसान आ सकता है जो खुद को भारत माता का बेटा समझता हो, और जिसे संघ की सांस्कृतिक-राष्ट्रीय सोच से कोई ऐतराज़ न हो।” मतलब, धर्म नहीं बल्कि सोच मायने रखती है।

भागवत ने आगे ये भी साफ़ कहा कि जो लोग इस सांस्कृतिक और राष्ट्रीय भावना को स्वीकार नहीं करते, या खुद को इस बड़े हिंदू समाज और भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं मानते उनके लिए RSS में जगह नहीं है। यानि सदस्यता की सीमा सिर्फ़ “धर्म” से नहीं तय होती, बल्कि विचारधारा और नीयत से होती है।

इसका मतलब ये हुआ कि अगर कोई व्यक्ति हिंदू, मुस्लिम या ईसाई है और वो भारत की मिट्टी, इसकी परंपराओं और इसके सांस्कृतिक ढाँचे को सम्मान देता है, तो उसे RSS में शामिल होने से रोका नहीं जाएगा। लेकिन अगर कोई ये सोच रखता है कि “मैं इस सांस्कृतिक ढाँचे का हिस्सा नहीं हूँ”, तो फिर संघ उसे अपनाने में हिचकिचाएगा।

देखा जाए तो भागवत का ये बयान कई मायनों में अहम है क्योंकि इससे एक तरफ़ समावेश (Inclusivity) की झलक मिलती है, वहीं दूसरी तरफ़ ये भी साफ़ कर दिया गया कि RSS सिर्फ़ धार्मिक संगठन नहीं बल्कि एक विचारधारा है, जो “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” पर टिकी हुई है।

अब इस बात की व्याख्या अलग-अलग लोग अपने-अपने नज़रिए से करेंगे किसी के लिए ये बयान “एकता का संदेश” है, तो किसी के लिए “अपनी विचारधारा थोपने” की कोशिश। लेकिन इतना तो तय है कि इस बयान ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है कि क्या भारतीयता का मतलब सिर्फ़ धर्म से जुड़ा है या सोच और संस्कारों से भी?

मोहन भागवत का ये कहना कि “हमारे लिए हर वो व्यक्ति स्वागत योग्य है जो भारत माता से प्रेम करता है”, एक तरह से RSS की पुरानी छवि में एक नई परत जोड़ता है।
ये बयान शायद उस सोच की तरफ़ इशारा करता है जहाँ धर्म से ज़्यादा अहमियत देश और संस्कृति के प्रति निष्ठा को दी जा रही है।

संक्षेप में कहा जाए तो RSS का दरवाज़ा धर्म नहीं, बल्कि विचार खोलता है। अगर आपकी सोच भारत के सम्मान, संस्कृति और एकता की दिशा में है तो चाहे आप किसी भी मज़हब से हों, आपका स्वागत है। लेकिन अगर सोच में दूरी है, तो फिर दरवाज़ा खुला होने के बावजूद रास्ता मुश्किल रहेगा।

शामिल होने की शर्तें क्या-क्या हैं?

अगर कोई शख़्स RSS में शामिल होना चाहता है, तो उसके लिए कुछ बातों को दिल से अपनाना ज़रूरी है। सबसे पहली और अहम शर्त ये है कि उसे भारत की संस्कृति और इसकी मिट्टी से जुड़ाव महसूस होना चाहिए। यानी जब वो “भारत माता की जय” बोले, तो वो नारा उसके दिल से निकले, सिर्फ़ ज़बान से नहीं।

उसे ये बात भी समझनी और माननी होगी कि भारत एक ऐसा मुल्क है जहाँ अलग-अलग धर्म, मज़हब और संस्कृतियाँ साथ-साथ रहती हैं, और यही हमारी सबसे बड़ी खूबसूरती है। हम सब मिलकर एक ही राष्ट्र का हिस्सा हैं हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबका देश एक ही है, और यही एकता भारत की असली ताक़त है। मोहन भागवत ने अपने बयान में बहुत साफ़ कहा “हिंदू सोच ये नहीं कहती कि इस देश में इस्लाम नहीं रहेगा।”

मतलब, किसी से उसके मज़हब या ईमान को छोड़ने की बात नहीं की जा रही। हर इंसान को अपने धर्म और विश्वास पर कायम रहने का पूरा हक़ है। बस इतना ज़रूरी है कि वह सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर देश की एकता, शांति और तरक़्क़ी के लिए खड़ा हो।

अब बात करें उन चीज़ों की जो वर्जित मानी गई हैं तो अगर कोई व्यक्ति RSS की उस राष्ट्रीय-सांस्कृतिक सोच को मानने से इंकार करता है, या खुद को उस भारतीय समाज या संस्कृति का हिस्सा नहीं समझता, तो फिर उसके लिए संघ में जगह पाना आसान नहीं होगा।

अगर कोई इंसान सिर्फ़ जाति, धर्म या फिर संप्रदाय के नाम पर अलगाव चाहता है, और उसमें “हम” और “वो” की सोच है तो ये रवैया RSS की विचारधारा से मेल नहीं खाता।

RSS संघ की नज़र में वो लोग ही क़ाबिल हैं जो राष्ट्र को परिवार की तरह मानते हैं, और जो ये समझते हैं कि भले हमारे मज़हब अलग हों, लेकिन हमारा वतन एक है। वो लोग ही इस संगठन की असली रूह से जुड़ सकते हैं जो नफ़रत नहीं, हमदर्दी और एकता में यक़ीन रखते हैं।

कुल मिलाकर, RSS में शामिल होने के लिए दिल बड़ा और सोच एकजुट होना चाहिए धर्म कुछ भी हो, लेकिन नीयत साफ़ और इरादा मुल्क के लिए होना चाहिए। क्योंकि आख़िर में बात उसी की होती है जो अपने देश की मिट्टी से मोहब्बत करता है और उसकी इज़्ज़त में खड़ा रहता है।

इस बयान का सामाजिक-राजनीतिक महत्व

यह बयान दरअसल RSS की उस पुरानी सोच में बदलाव का इशारा माना जा रहा है, जहाँ पहले संगठन को ज़्यादातर लोग “सिर्फ़ हिंदुओं के लिए” मानते थे। अब संघ खुद को “सभी भारतीयों का संगठन” बताने की कोशिश कर रहा है यानी ऐसा प्लेटफॉर्म जहाँ हर धर्म, हर मज़हब का शख़्स अगर दिल से देशभक्त है, तो उसका स्वागत है।

मुस्लिम और बाकी अल्पसंख्यक समुदायों के लिए ये बात उम्मीद की एक नई किरण भी हो सकती है। क्योंकि अगर सच में ये दरवाज़े खुले हैं, तो इसका मतलब है कि समाज में एकजुटता और साझेदारी की राह धीरे-धीरे बन रही है। बस शर्त वही है सोच और नीयत एक जैसी होनी चाहिए, मुल्क और उसकी एकता के लिए दिल में इज़्ज़त होनी चाहिए।

लेकिन, हर कोई इस बात को इतनी आसानी से नहीं मान रहा। आलोचक (critics) कह रहे हैं कि ये सब सिर्फ़ बोलने की बातें हैं, असल ज़िंदगी में ऐसा देखना मुश्किल है। कुछ लोग इसे “double standard” या “दोहरे मापदंड” कह रहे हैं मतलब, बात तो सबकी की जा रही है, लेकिन जगह अब भी चुनिंदा लोगों को ही मिलती है।

जैसे AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी ने इसे “cheap talk” बताया उनका कहना है कि अगर संघ वाकई सबको अपनाना चाहता है, तो उसे अपने बर्ताव और नीतियों में भी वही बराबरी दिखानी होगी। सिर्फ़ बयानों से नहीं, बल्कि ज़मीनी अमल से भरोसा बनेगा।

राजनीतिक तौर पर देखें तो ये बयान बहुत टाइमिंग वाला है। क्योंकि आजकल देश में अल्पसंख्यक अधिकार, नागरिकता कानून (CAA-NRC), और राष्ट्रीय पहचान जैसे मुद्दों पर खूब बहस चल रही है। ऐसे वक्त में RSS की ये “सबको जोड़ने वाली बात” लोगों का ध्यान खींचने लाज़मी है।

कई विश्लेषक मानते हैं कि ये बयान सोच में लचीलापन दिखाने की कोशिश भी है ताकि संगठन को थोड़ा नरम और inclusive (समावेशी) छवि के रूप में देखा जाए।
वहीं कुछ का कहना है कि यह राजनीतिक संतुलन साधने का तरीका भी हो सकता है जिससे एक ओर देश की एकता की बात हो, और दूसरी ओर संगठन की परंपरागत विचारधारा भी बनी रहे।

आम लोगों की नज़र में अब सवाल यही है कि क्या ये बदलाव सच्चा और स्थायी होगा या फिर सिर्फ़ बयानों तक सीमित रहेगा? क्योंकि आज के दौर में लोग सिर्फ़ बातों पर नहीं, अमल पर यक़ीन करते हैं।

अगर सच में संघ अपनी सोच को हर भारतीय तक पहुँचाना चाहता है, तो उसे न सिर्फ़ बयान देना होगा, बल्कि अपने रोज़मर्रा के कामों में भी सबको बराबरी से जगह देनी होगी। तभी ये संदेश दिलों तक पहुँचेगा कि अब संघ सिर्फ़ “हिंदू संगठन” नहीं बल्कि “भारतीय एकता” का प्रतीक बनना चाहता है।

चुनौतियाँ एवं आलोचनाएँ

अब बात आती है भरोसे और असलियत की क्योंकि बहुत से लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि जब संगठन की सोच और काम करने का तरीका वही पुराना है, तो फिर ऐसे बयान का मतलब क्या है? लोगों का कहना है कि अगर अंदर से कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ, तो ये सब सिर्फ़ दिखावे या प्रतीकात्मक बातें लगती हैं।

असल में, किसी मुस्लिम या दूसरे धर्म के शख़्स के लिए RSS में शामिल होना इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि जब शर्त में लिखा है कि “खुद को हिंदू समाज का हिस्सा मानना ज़रूरी है”, तो ये बात कई लोगों के लिए दिल से स्वीकार करना मुश्किल हो सकता है। माना कि नीयत साफ़ हो सकती है, मगर शब्दों की ये बंदिशें कुछ लोगों के लिए एक मानसिक दीवार जैसी बन जाती हैं।

ज़मीनी स्तर पर, यानी लोकल शाखाओं में भी माहौल हर जगह एक जैसा नहीं होता। कहीं लोग खुले दिल से मिलते हैं, तो कहीं अब भी अलगाव की भावना महसूस होती है। इसलिए सिर्फ़ ऊपर से दिया गया बयान काफी नहीं है जब तक नीचे तक, हर शाखा में सोच का बदलाव नहीं दिखेगा, तब तक सच्ची बराबरी की तस्वीर पूरी नहीं होगी।

अब बात करें राजनीति और संगठन की नीति की RSS खुद को “गैर-राजनीतिक संगठन” बताता है, मगर सच ये है कि इसके राजनीतिक संबंध और प्रभाव हमेशा चर्चा में रहते हैं। कई बार लोगों को लगता है कि जो बातें RSS कहता है, वही बाद में राजनीतिक स्तर पर भी दोहराई जाती हैं। इसलिए लोगों के मन में ये शक रह जाता है कि क्या ये सब सच में समाज सुधार की दिशा है, या राजनीति का एक तरीका?

आख़िर में, साफ़ तौर पर यही कहा जा सकता है कि हाँ, मुस्लिम और दूसरे धर्मों के लोग RSS में शामिल हो सकते हैं, ये खुद मोहन भागवत ने कहा है। लेकिन इसमें कोई “ओपन-इनविटेशन” नहीं है, बल्कि कुछ शर्तें और विचारधाराएँ साथ जुड़ी हुई हैं। जो शख़्स उस सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सोच से सहमत है, वही इस संगठन में अपनी जगह बना सकता है।

अगर आप सोच रहे हैं कि “क्या मैं खुद RSS की शाखा में शामिल हो सकता हूँ?”तो इसका जवाब आपकी सोच और विश्वास पर निर्भर करेगा। आपको देखना होगा कि वहाँ की विचारधारा और माहौल आपके अपने विश्वास और सामाजिक मकसद से मेल खाता है या नहीं।

क्योंकि आखिरकार ये सिर्फ़ एक संगठन में शामिल होने का मामला नहीं, बल्कि आपकी पहचान और नज़रिए से जुड़ा एक बड़ा फैसला भी है जो सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत तीनों स्तरों पर महत्वपूर्ण असर डाल सकता है।

अब अगर जनता और सोशल मीडिया की बात करें, तो इस बयान पर मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली है। कुछ लोगों ने कहा कि “कम से कम बातचीत की शुरुआत तो हुई” जो एक पॉजिटिव स्टेप है, क्योंकि इससे अलग-अलग समुदायों के बीच संवाद का रास्ता खुलता है। बहुतों ने इसे “समझ और मेलजोल की शुरुआत” बताया, जो आने वाले वक्त में रिश्तों में नरमी ला सकती है।

वहीं दूसरी तरफ, कुछ लोगों ने इस बयान को संदेह भरी नज़रों से देखा। उनका कहना है कि अगर RSS वाकई सभी धर्मों को अपने साथ जोड़ना चाहता है, तो उसे अपने पुराने बर्ताव और बयानों पर भी पुनर्विचार करना होगा। कई सोशल मीडिया यूज़र्स ने लिखा “नारा अच्छा है, पर अमल में मुश्किल।” क्योंकि लोगों का भरोसा सिर्फ़ बातों से नहीं, तजुर्बे से बनता है।

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बयान आने वाले चुनावी दौर में समावेशी छवि दिखाने की कोशिश हो सकती है। संघ अगर सच में “सबका संगठन” बनना चाहता है, तो उसे शहरों से लेकर गाँवों तक, हर शाखा में एक समान माहौल बनाना होगा जहाँ धर्म या जाति नहीं, बल्कि देशप्रेम और इंसानियत की बात सबसे ऊपर हो।

आख़िर में यही कहा जा सकता है कि RSS का ये बयान नई सोच की तरफ़ इशारा करता है, मगर इसकी सच्चाई तभी साबित होगी जब ये बात ज़मीनी स्तर पर नज़र आएगी। अगर संघ और समाज दोनों तरफ़ से खुले दिल और इरादे साफ़ हुए, तो शायद वाकई भारत में एक नई सामाजिक एकता की शुरुआत देखी जा सकेगी जहाँ मज़हब से पहले इंसानियत और राजनीति से पहले देशभक्ति होगी।

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